डॉ. वेदप्रताप वैदिक,
नोटबंदी से उत्पन्न परेशानियों को लेकर विरोधी दलों के नेता राष्ट्रपति से मिले हैं लेकिन राष्ट्रपति क्या कर सकते हैं? बहुत हुआ तो प्रधानमंत्री को वे सलाह दे सकते हैं बशर्ते कि उन्हें किसी की सलाह की जरुरत हो। वैसे तो हम देख रहे हैं कि नोटबंदी की घोषणा के पहले दिन से ही सरकार ताबड़तोड़ काम कर रही है। नोटबंदी की नाव अभी किनारे पर ही थी कि वह भंवर में फंस गई। अपनी नाव को तैरा ले जाने के लिए सरकार ने क्या-क्या द्राविड़ प्राणायाम नहीं किए लेकिन मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की। अब सरकार को एक नया मंत्र हाथ लगा है। वह है, नगदबंदी का। नगद लेन-देन की जगह क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, पेटिम, इंटरनेट बैंकिंग आदि के जरिए लेन-देन का। नोटबंदी की घोषणा करते समय 8 नवंबर को दूर-दूर तक नगदबंदी का कोई इशारा तक नहीं था। अब सरकार नगदबंदी पर पिल पड़ी है। नगदबंदी को सफल बनाने के लिए उसने 3-4 सौ करोड़ रु. के इनाम भी घोषित कर दिए हैं।
आचार्य कौटिल्य ने ठीक ही कहा है कि राजा को अपनी लक्ष्य-प्राप्ति के लिए साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल करना चाहिए। अब दाम के साथ दंड भी शुरु हो गया है। सैकड़ों बैंक-शाखाओं की जांच चल रही है। दर्जनों मेनेजर गिरफ्तार हो चुके हैं। उन्होंने रातों-रात करोड़ों-अरबों के काले धन को गोरा कैसे कर दिया? काले धन पर जितना कर पहले मिलता था, अब उतना भी नहीं मिलेगा, क्योंकि वह देश के 40 करोड़ बैंक खातों में बंट-बंटकर गोरा हो गया है। अब आयकर विभाग इन 40 करोड़ खातों की भी जांच करेगा कि उनमें अचानक दो-दो ढाई-ढाई लाख रु. या बहुत ज्यादा रुपए कैसे जमा हो गए? प्रधानमंत्री ने इन जन-धन खातेदारों से कहा है कि जिन्होंने उनके नाम से अपना काला धन गोरा किया है, उनकी पहचान उजागर करें और उस धन को वे हजम कर जाएं। इसके अलावा कई शहरों में नए नोटों और पुराने नोटों के जखीरे भी लगभग रोज पकड़े जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा है कि लाइनों में लगे आम लोगों को दो-दो हजार रु. के लिए तरसना पड़ रहा है और कुछ लोगों के पास लाखों-करोड़ों रु. के नए नोट कहां से आ रहे हैं?
जहां तक काले धन को बाहर निकालने का सवाल था, वह लक्ष्य तो एकदम विफल हो गया है। सरकार को उम्मीद थी कि डर के मारे लोग अपना बहुत-सा काला धन जला देंगे या नदियों में बहा देंगे या चिंदियों में बदलकर फेंक देंगे। लेकिन हुआ क्या? सरकार डाल-डाल तो जनता पात-पात। भारत की जनता ने सिद्ध कर दिया कि देश की मालिक वही है। मालिक अपने नौकर से तेज निकला। सरकार ने लाख अदाकारियां कीं, लालच दिए, धमकियां दीं, आंसू बहाए, अखाड़े से भाग खड़ी हुई लेकिन मालिक याने जनता ने कोई तेवर नहीं दिखाए, त्यौरियां भी नहीं चढ़ाई, वह विरोधियों के बहकावे में भी नहीं आई लेकिन उसने चुपचाप सरकार को चारों खाने चित कर दिया। उसने अपना सारा काला धन गोरा कर लिया। सरकार के अनुमान से भी कहीं ज्यादा काला धन बैंकों में जमा हो गया। अब इस 13-14 लाख करोड़ रु. पर बैंकों को ब्याज देना पड़ा तो उनका दिवाला पिट सकता है और नए नोट आते ही लोग अपना रुपया निकालने के लिए दौड़ पड़े तो सारे बैंक खाली हो जाएंगे। प्रधानमंत्री का गरीब कल्याणकोश ठन-ठन गोपाल बनकर रह जाएगा। हर नागरिक के खाते में 15-15 लाख रु. जमा करवाने का जुमला लेकर भाजपा अध्यक्ष को अब लंबे समय तक विदेशों में काले धन के खजानों की खोज करते रहना पड़ेगी।
यों भी अब मुद्रा, करेंसी या नगद में से लोगों का विश्वास डगमगा गया है। ज्यों ही नए नोट उनके हाथ लगेंगे तो वे जमीन-जायदाद, सोना, जेवर, डाॅलर और पौंड में उनको बदलेंगे और सुरक्षित महसूस करेंगे। भारतीय पैसा अब दुगुनी रफ्तार से विदेशी बैंकों में दौड़ेगा। दो हजार के नए नोट ने काले धन को जमा करने की मुश्किलों को आधा कर दिया है। उस नोट के बंद होने की अफवाह से भी लोग घबराए हुए हैं। इस घबराहट को नगदबंदी ने और बढ़ा दिया है। यदि लोगों का ज्यादातर नगद पैसा बैंकों में चला गया तो उन्हें आशंका है कि यह बदहवास सरकार कुछ भी कर सकती है। गिरती हुई अर्थ-व्यवस्था को टेका देने के लिए यह सरकार एक निश्चित राशि को छोड़कर बैंक में जमा सारी राशियों का राष्ट्रीयकरण कर सकती है। पिछले 38 दिनों में अर्थ-व्यवस्था को जो धक्का लगा है, उसे देश के प्रमुख अर्थशास्त्री दो-टूक शब्दों में रेखांकित कर ही रहे हैं, साथ ही उनकी भविष्यवाणी को रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने भी कमोबेश स्वीकार किया है। जिनके पास काला धन टनों से रखा है, वे सब मौज कर रहे हैं। बैंक की कतारों में कोई भी नेता, कोई भी बड़ा सेठ, कोई भी अफसर और कोई भी मोटा खाताधारी लगा हुआ नहीं दीखता। भूखे-प्यासे, ठंड में ठिठुरते हुए, पुलिस के डंडे खाते हुए और दम तोड़ते हुए भी कतारों में लगे हुए भोले लोगों को अभी भी विश्वास है कि सरकार ने नोटबंदी इसीलिए की है कि इससे काला धन और भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन क्या उन्हें पता है कि नोटबंदी ने बैंकों को भ्रष्टाचार और अन्याय के अड्डों में बदल दिया है? 40 करोड़ खाताधारियों की ईमानदारी में शक पैदा कर दिया है? नोटबंदी की मार सबसे ज्यादा उन्हीं पर पड़ी है, जिनके पास काला धन तो क्या, कोई भी धन नहीं है। लाइनों में लगे इन करोड़ों लोगों के अरबों घंटे बर्बाद हो गए।
अब सरकार इन्हें ‘डिजिटल इकाॅनामी’ की ट्रेनिंग देगी। याने हर लेन-देन पर दो-ढाई प्रतिशत कमीशन कटेगा। गरीबों और अमीरों की जेब फिजूल में कटेगी और देसी-विदेशी कंपनियों का मुटापा बढ़ेगा। यदि एक 100 रु. का लेन-देन साल में 1000 बार हुआ तो ढाई रु. के हिसाब से इन कंपनियों को ढाई हजार रु. का फायदा होगा। यह सरासर लूट नहीं है तो क्या है? कुछेक हजार टैक्सचोरों को पकड़ने में अक्षम इस सरकार ने करोड़ों ईमानदार और मेहनतकश लोगों को सांसत में डाल दिया है। डिजिटल लेन-देन कितना खतरनाक हो सकता है, इसका पता इसी से चल सकता है कि कुछ माह पहले 32 लाख भारतीयों के डेबिट कार्ड रद्द करने पड़े थे क्योंकि कुछ विदेशियों ने उनकी कुंजी हथिया ली थी। याहू के लगभग एक अरब खाते डिजिटल डकैतों ने खोल लिए हैं। डिजिटल लेन-देन ऐसा विकट है कि एक सेकेंड में कोई करोड़पति कौड़ीपति हो जा सकता है और कौड़ीपति करोड़पति ! इसके अलावा जिन समृद्ध और सुशिक्षित देशों में डिजिटन लेन-देन चलता है, वहां भ्रष्टाचार भारत से कई गुना ज्यादा है। क्या बोफर्स और आगस्टा वेस्टलैंड की रिश्वतें नगद में खाई गई हैं? जिन्हें डिजिटल लेन-देन सुविधाजनक लगता है, वे उसे जरुर अपनाएं लेकिन भारत के 100 करोड़ गरीब, ग्रामीण और अर्ध-शिक्षित लोगों पर उसे थोपना बिल्कुल अव्यावहारिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ जरुरी कामों के लिए पुराने नोट जारी रखने की सलाह सरकार को दी है। मेरी विनम्र राय तो यह है कि सरकार को नए नोट छापने में अरबों रु. बर्बाद करने की बजाय अब पुराने नोटों को ही फिर से जारी कर देना चाहिए। काले धन के फूल-पत्तों को नोचने की बजाय उसकी जड़ों को मट्ठा पिलाया जाना चाहिए। यह कैसे किया जाए, वह फिर कभी !
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