इंद्र वशिष्ठ
चतुर होना अच्छा नहीं, कौआ बड़ा चतुर होता है, परन्तु विष्ठा खाता है रामकृष्ण परमहंस की यह बात पुलिस कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव और उन आईपीएस को याद रखनी चाहिए जिन्होंने बेकसूर लड़कियों तक को आतंकी, देशद्रोही और दंगाई बता कर जेल में डाल दिया। सत्ता के लठैत बने ऐसे अफसरों की सारी चतुराई अदालत में धरी की धरी रह जाती है। ऐसे अफसरों के कारण ही अदालत में पुलिस की धज्जियां उड़ रही है।
हाईकोर्ट से 15 जून को जमानत मिलने के बावजूद पुलिस द्वारा तीनों छात्रों की रिहाई में वैरीफिकेशन के नाम पर जानबूझ कर अड़चन डालने की कोशिश की गई।
अदालत ने 17 जून को पुलिस को दोबारा फटकार लगाई और तीनों को तत्काल रिहा करने का आदेश दिया तब जाकर तीनों को जेल से रिहा किया गया।
अफसरों की शर्मनाक हरकत-
पुलिस की इस हरकत से कई आईपीएस अफसर भी सहमत नहीं है। आईपीएस अफसर का कहना है कि पुलिस को ऐसी हरकतों के कारण ही अदालत फटकार लगाती है।
हाईकोर्ट के आदेश का पुलिस को तुरंत पालन करना चाहिए था। वैरीफिकेशन का काम तुरंत करना चाहिए था।
बेकसूरों को फंसाने वाले अफसरों के कारण ही पुलिस की छवि खराब होती है।
तीनों आरोपी छात्र एक साल से जेल में थे। स्पेशल सेल ने यूएपीए और दंगों के साजिश रचने के आरोप में तीनों को जेल में डाला था। इस मामले मेंं ही हाईकोर्ट ने 15 जून को पुलिस के दावों की धज्जियां उड़ाई। अदालत ने कहा कि विरोध प्रदर्शन करना आतंकी गतिविधि नहीं होता । अदालत ने तीनों को जमानत दे दी थी।
जेएनयू की देवांगना पर चार,नताशा पर तीन और जामिया के आसिफ पर दंगों को लेकर दो मामले दर्ज किए गए हैं। अन्य मामलों में इन तीनों को पहले ही जमानत मिल चुकी है।
घरों के पते तो पहले से सत्यापित होंंगे ।-
जाहिर सी बात है कि ऐसे में उन मामलों में जमानत मिलने पर भी पुलिस ने तीनों के स्थायी घरों के पतों का सत्यापन किया ही होगा।
जाफराबाद थाना ,अपराध शाखा और स्पेशल सेल तीनों को गिरफ्तार करने के बाद तफ्तीश के दौरान भी तो तीनों के घरों में गई ही होगी। यूएपीए के तहत आतंकी गतिविधियों के आरोप में तीनों को गिरफ्तार करने वाली तेजतर्रार स्पेशल सेल ने भी तीनों के घरों के पतों का सत्यापन तो जरुर किया ही होगा। घरों के पते चार्ज शीट में भी दर्ज किए जाते है।
जिससे साफ पता चलता है कि पुलिस के पास तीनों के घरों के सत्यापित पते तो पहले से मौजूद हैं ही।
जेल मेंं रहते क्या घर बदल लिया होगा ?-
तीनों आरोपी जेल में थे तो ऐसे में वह अपना स्थायी घर तो बदल नहीं सकते थे यानी उनके स्थायी पते तो वहीं रहेंगे जो पुलिस के रिकॉर्ड में मौजूद हैं।
इसके बावजूद पुलिस ने तीनों के रोहतक, झारखंड और असम के घरों के पतों के वैरीफिकेशन के लिए 21 जून तक का समय मांगा। पुलिस ने कहा कि जमानतदारों के आधार विवरण को सत्यापित करने के लिए यूआईडीएआई की आवश्यकता है।
रोहतक भी दूर था क्या? –
नताशा के रोहतक स्थित घर का सत्यापन करने के लिए अगर पुलिसकर्मी वहां भेजा भी जाता तो ज्यादा से ज्यादा चार घंटे में उसका आना जाना हो जाता। दिल्ली से रोहतक की दूरी 60 -70 किलोमीटर की है।
कमिश्नर क्या बता सकते है कि नताशा के पते का वैरीफिकेशन तुरंत क्यों नहीं कराया गया।
कमिश्नर क्या इन सभी को पहले जिन मामलों में जमानत मिली थी उनमें घरों के पते और जमानतदारों का सत्यापन किस तरीके और कितने दिन में किया गया था?
इससे तो साफ लगता है कि रिहाई में जानबूझ कर अड़चन डाली गई।
पुलिस के पास इन तीनों और उनके जमानतदारों के आधार कार्ड भी थे। आधार से तो तुरंत वैरीफिकेशन की जा सकती है।
माना कि कानूनी औपचारिकता पूरी करना जरुरी थी तो अब तो इंटरनेट का जमाना है। ऐसे में पुलिस संबंधित राज्यों की पुलिस से अनुरोध करके दो-चार घंटे के भीतर भी तीनों के घरों के पतों को वैरीफाई करवा सकती थी। क्योंकि कोई भी बेकसूर एक सेकंड भी जेल में नहीं रहना चाहिए।
लेकिन लगता है कि हाईकोर्ट में पुलिस की पोल खुलने से बौखलाए अफसरों ने तीनों की रिहाई को टालने को पूरी कोशिश की।
सुप्रीम कोर्ट से झटका-
पुलिस ने हाईकोर्ट के जमानत के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। कमिश्नर और आईपीएस अफसरों को उम्मीद होगी कि सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर देगा। लगता है कि इसलिए घरों के पतों के वैरीफिकेशन के नाम पर तीनों की रिहाई को लटकाने की कोशिश की होगी।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आज हाईकोर्ट के जमानत के आदेश को बरकरार रख पुलिस को जोरदार झटका दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह इस स्तर (स्टेज) पर इन तीनों को दी गई जमानत में हस्तक्षेप नहीं कर रहा है। न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति वी. रामसुब्रमण्यम की अवकाश पीठ ने दिल्ली पुलिस द्वारा दायर अपील पर नोटिस जारी किया, लेकिन जमानत के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।
अदालत ने फटकार लगाई।-
15 जून को जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और अनूप जयराम भंभानी की बेंच ने पुलिस के दावों की धज्जियां उड़ाई और तीनों को जमानत दे दी। लेकिन जमानत मिलने के 36 घंटे बाद तक उन्हें रिहा नहीं किया गया ।
रिहाई में जानबूझकर देरी करने का आरोप लगाते हुए तीनों ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी।
इसके बाद गुरुवार को कोर्ट में इस मामले पर सुनवाई हुई।
सुनवाई के दौरान पुलिस ने कोर्ट से कहा कि हम तीनों का पता वेरिफाई कर रहे हैं, जो अलग-अलग राज्यों में हैं। हमारे पास ऐसी ताकतें नहीं हैं, कि रोहतक, झारखंड और असम में दिए गए पते को इतनी जल्दी वेरिफाई कर सकें। इसलिए इसमें समय लग रहा है। इस पर अदालत ने पुलिस पर सख्त टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि पिछले एक साल से तीनों आपकी कस्टडी में थे, इसके बाद भी वेरिफिकेशन करने में देरी की जा रही है।
अदालत ने उच्च न्यायालय की उस टिप्पणी का हवाला दिया, जिसमें उसने कहा था कि एक बार जब कैद में रखे गए लोगों को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया गया है और मुचलके के साथ जमानतदारों को प्रस्तुत किया गया है, तो उन्हें ‘एक मिनट के लिए भी’ सलाखों के पीछे नहीं रहना चाहिए.
न्यायाधीश ने कहा, ‘यह देखा गया कि राज्य को न्यूनतम संभव समय के भीतर इस तरह की सत्यापन प्रक्रिया के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे को सुनिश्चित करना चाहिए और ऐसा कोई कारण नहीं हो सकता है, जो ऐसे व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए पर्याप्त हो।’
इसके बाद कड़कड़डूमा कोर्ट ने तुरंत रिहाई का आदेश जारी किया। आदेश की कॉपी ई मेल के जरिए तिहाड़ जेल के प्रशासन को भेजी गई जिसके बाद शाम को तीनों को रिहा कर दिया गया।
कोई सबूत नहीं।-
हाईकोर्ट ने 15 जून को जमानत देते हुए कहा कि “हमारे सामने कोई भी ऐसा विशेष आरोप या सबूत नहीं आया है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि याचिकाकर्ताओं ने हिंसा के लिए उकसाया हो, आतंकवादी घटना को अंजाम दिया हो या फिर उसकी साजिश रची हो, जिससे कि यूएपीए लगे.”
झूठा फंसाया।-
इससे पता चलता है कि अदालत ने एक तरह से साफ कह दिया कि पुलिस के आरोप झूठे हैं। वैसे अदालत को इस मुकदमेंं का निपटारा भी एक महीने के भीतर कर देना चाहिए। ताकि बेकसूरों को मुकदमें की सुनवाई के लिए सालों तक अदालत के चक्कर न लगाने पड़े।
कमिश्नर, आईपीएस जेल भेजे जाएं।-
जज पुलिस के दावों की धज्जियां उड़ा रहे हैं फटकार भी लगा रहे हैं। लेकिन अदालत द्वारा बेकसूरों को झूठे मामलों में फंसा कर जेल भेजने वाले पुलिस कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव, अपराध शाखा के विशेष आयुक्त प्रवीर रंजन, संयुक्त आयुक्त प्रेमनाथ, स्पेशल सेल के विशेष आयुक्त नीरज ठाकुर, डीसीपी प्रमोद कुशवाहा, पूर्वी क्षेत्र के संयुक्त पुलिस आयुक्त आलोक कुमार और उत्तर पूर्वी जिले के तत्कालीन डीसीपी वेद प्रकाश सूर्य आदि को जेल भेजा जाना चाहिए। अदालत द्वारा पीडितों के साथ तभी सही मायने में न्याय होगा। जब तक आईपीएस अफसर और जांच अधिकारी जेल नहीं भेजे जाएंगे तब तक सत्ता के लठैत बने अफसरों द्वारा बेकसूरों को फंसाना बंद नहीं हो सकता।
जितने दिन बेकसूरों को जेल में रहना पड़ा कम से कम उतने ही दिन अफसरों को भी जेल में रखा जाए तो ही सही मायने में इंसाफ होगा।
प्रदर्शन करना आतंकवादी कृत्य नहीं है।-
हाईकोर्ट ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में प्रदर्शन के दौरान हुई सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित एक मामले में जेएनयू छात्र देवांगना कलिता को जमानत देते हुए कहा कि प्रदर्शन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और इसे ‘आतंकवादी कृत्य’ नहीं कहा जा सकता है। भडकाऊ भाषण और चक्का जाम आतंकी कृत्य नहीं है। यह यूएपीए के तहत आने वाले अपराध नहीं हैंं।
लोकतंत्र को खतरा-
हाईकोर्ट ने साथ ही यह भी कहा कि सरकार ने असहमति को दबाने/कुचलने की अपनी बेचैनी/बेताबी में संविधान प्रदत्त प्रदर्शन करने के अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा धुंधली कर दी है यदि यह मानसिकता मजबूत होती है तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा।
अदालत ने अपने 83 पन्नों के एक फैसले में कहा, “अगर इस तरह का धुंधलापन जोर पकड़ता है, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।“
देशद्रोही बनाया।-
किसान आंदोलन का समर्थन करने वाली कथित टूलकिट मामले में बेकसूर पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को देशद्रोही बता कर जेल भेजने वाली पुलिस की पोल फरवरी में भी अदालत में खुल चुकी है। अतिरिक्त जिला एवं सेशन जज धर्मेंद्र राणा ने पुलिस के दावों की जमकर धज्जियां उड़ाई थी।जज ने अपने आदेश में कहा कि टूल किट में देशद्रोह जैसी कहीं कोई बात ही नहीं है।
सौ खरगोशों से आप घोड़ा नही बना सकते-
दंगों के एक मामले में पुलिस की तफ्तीश की पोल खोलते हुए कड़कड़डूमा अदालत के एडिशनल सेशन जज अमिताभ रावत ने रुसी लेखक फ्योदोर दोस्तोवस्की की किताब ‘अपराध और सजा’ के हवाले से कहा कि “सौ खरगोशों से आप एक घोड़ा नहीं बना सकते हैं और सौ संदेहों को एक साक्ष्य/प्रमाण नहीं बना सकते”। इसलिए दोनों आरोपियों को हत्या की कोशिश (धारा 307) और शस्त्र अधिनियम के आरोप से मुक्त (डिस्चार्ज) किया जाता है।’’
मिसाल नहीं।-
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली दंगों की साजिश मामले में तीन छात्र कार्यकर्ताओं की जमानत के खिलाफ दिल्ली पुलिस द्वारा दायर अपील पर नोटिस जारी करते हुए कहा कि दिल्ली पुलिस की अपील पर फैसला होने तक हाईकोर्ट के फैसले को मिसाल के तौर पर न लिया जाए।
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