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पीड़ित बेटियों के लिए लड़ती रहूंगी : निर्भया की मां

 

रीतू तोमर,

नई दिल्ली| राष्ट्रीय राजधानी में साढ़े चार साल पहले छह दरिंदों का शिकार हुई निर्भया के दोषियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाने में उसके परिवार की अहम भूमिका रही है। निर्भया की मां आशा देवी कहती हैं कि उनके परिवार ने एक जंग जीत ली है, लेकिन अभी उन्हें ऐसी कई और जंग जीतनी है। वह ‘निर्भया ज्योति ट्रस्ट’ के जरिए हजारों पीड़ित बेटियों को न्याय दिलाने के लिए अपनी जंग जारी रखेंगी।

सर्वोच्च न्यायालय ने जब ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए निर्भया के दोषियों को निचली अदालत द्वारा सुनाई गई फांसी की सजा को बरकरार रखा, तो आशा देवी इस पल का गवाह बनने के लिए वहीं मौजूद थीं।

उन्होंने आईएएनएस से फोन पर बातचीत में कहा, “यह साढ़े चार वर्षो का सफर कैसा रहा, मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती। इस दौरान कई उतार-चढ़ाव आए। हमने बहुत कुछ झेला और आखिर में हमारा संघर्ष रंग लाया। संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ है। अभी सिर्फ एक जंग जीती है, ऐसी कई लड़ाइयां लड़नी बाकी हैं।”

निर्भया के माता-पिता ने साल 2013 में एक ट्रस्ट शुरू किया था, जिसका काम उन पीड़िताओं को इंसाफ दिलाने में मदद करना है जो इस तरह की दरिंदगी का शिकार हुई हैं।

आशा देवी कहती हैं, “हमने 2013 में निर्भया ज्योति ट्रस्ट शुरू किया था। यह ट्रस्ट उन तमाम पीड़िताओं की मदद करने के लिए बनाया गया है, जो इस तरह की दरिंदगी का शिकार हुई हैं। हालांकि, हम अभी इन पीड़ितों की किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं कर रहे, क्योंकि हमारे पास फंड की कमी है। हम पैसे जुटाने में लगे हैं, ताकि पीड़िताओं की आर्थिक रूप से भी मदद कर सकें।”

यह ट्रस्ट किस तरह से काम कर रहा है? इसके जवाब में वह कहती हैं, “हम स्कूलों और कॉलेजों में जाकर इस तरह के अपराधों के बारे में जागरूकता फैला रहे हैं। हर साल 16 दिसंबर को निर्भया की याद में कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। हमारा जोर स्त्री सशक्तीकरण पर है। हम अन्य संस्थाओं को भी इस पहल से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।”

आशा देवी और उनके पति बद्रीनाथ द्वारका स्थित अपने घर से ही इस ट्रस्ट का संचालन कर रहे हैं। आर्थिक मदद मिलने के बारे में पूछने पर वह बताती हैं, “फिलहाल, हमें किसी एनजीओ, कंपनी या सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली है। हां, कुछ लोग स्वेच्छा से कुछ रकम देकर हमारी मदद को सामने आए हैं।”

निर्भया के परिजन उस पांचवें दोषी को भी फांसी के फंदे पर झूलते देखना चाहते हैं, जो नाबालिग होने का सबूत देकर उम्र की आड़ में सजा पाने से बच निकला। उसके बारे में आशा देवी कहती हैं, “इस पूरे प्रकरण में वह नाबालिग सबसे बड़ा गुनहगार था, लेकिन कानून ने उसे बचा लिया। वह आज एक नई पहचान के साथ जी रहा है, मगर इसकी क्या गारंटी है कि वह दोबारा इस तरह का अपराध नहीं करेगा? अपराध देखकर सजा मिलनी चाहिए, न कि उम्र देखकर।”

वह आगे कहती हैं, “हालांकि, इस मामले में एक बात अच्छी यह हुई है कि कानून में बदलाव लाकर इस तरह के मामलों में नाबालिग माने जाने की उम्र घटाकर 18 से 16 कर दी गई है और उन पर बालिगों की तरह मुकदमा चलाना तय किया गया है। इस पूरे मामले में मीडिया की भूमिका अहम रही है।”

आशा देवी कहती हैं, “दुष्कर्म के मामलों में यदि पीड़िता का परिवार उसके साथ खड़ा हो तो जंग लड़ना आसान हो जाता है, लेकिन ऐसा देखने में आया है कि कई मामलों में परिवार के दबाव में पीड़िता की जुबान दबा दी जाती है, ताकि समाज में बदनामी न हो। हम इस सोच को खत्म करने की दिशा में भी काम कर रहे हैं और मीडिया इसमें अहम भूमिका निभा सकता है।”

–आईएएनएस

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