इंद्र वशिष्ठ
अंंधा बांटे रेवड़ी, फिर फिर अपने को दे,यह कहावत राजनेताओं पर तो लागू होती ही थी लेकिन यह बात दिल्ली में एक मजिस्ट्रेट पर भी चरितार्थ हो गई है।
12 में से 10 जजों के लिए –
द्वारका अदालत के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अनुज बहल ने 5 मई को एक आदेश दिया। जिसके अनुसार पुलिस द्वारा जब्त किए गए 12 ऑक्सीजन कंसट्रेटर का इस्तेमाल जजों, न्यायिक अधिकारियों, पुलिस वालों और उनके परिजनों के लिए किया जाएगा। इनमेंं से दस ऑक्सीजन कंसट्रेटर तो जजों, न्यायिक अधिकारियों और उनके परिजनों के लिए इस्तेमाल किए जाएंगे और सिर्फ़ दो ऑक्सीजन कंसट्रेटर द्वारका जिले के डीसीपी को पुलिसकर्मियों के इस्तेमाल के लिए दिए गए ।
न्यायाधीश हो नि:स्वार्थ एवं निष्पक्ष संत जैसा-
हालांकि आठ मई को जिला एवं सत्र न्यायाधीश
की अदालत ने मजिस्ट्रेट के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें पुलिस द्वारा जब्त किए गए ऑक्सीजन कंसट्रेटर विभिन्न अदालतों और पुलिसकर्मियों के बीच वितरित किए जाने के निर्देश दिए गए थे।
प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश नरोत्तम कौशल ने कहा, एक न्यायाधीश को “नि:स्वार्थ एवं निष्पक्ष संत” की तरह कार्य करना चाहिए।
अदालत ने कहा कि ऑक्सीजन कंसंट्रेटर का बंटवारा, सरकार तय करेगी।
अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने भावुक होकर यह फैसला किया था क्योंकि दो न्यायिक अधिकारियों की कोरोना के कारण मौत हो गई थी।
प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश नरोत्तम कौशल ने दिल्ली सरकार द्वारा मजिस्ट्रेट अदालत के आदेश में संशोधन का अनुरोध करने वाली याचिका पर यह आदेश पारित किया।
पुलिस ने अपने लिए मांगे-
द्वारका थाने की पुलिस ने 4 मई को विनय अग्रवाल और आकाश वशिष्ठ से 12 ऑक्सीजन कंसट्रेटर जब्त किए थे। ये थाने के मालखाने में जमा करा दिए गए। अदालत से ऑक्सीजन कंसट्रेटर रिलीज करने का अनुरोध करते हुए पुलिस ने कहा कि तमाम पुलिसकर्मी कोरोना संक्रमित है, इसलिए इन ऑक्सीजन कंसट्रेटर को उनकी जान बचाने के लिए इस्तेमाल करने की इजाज़त दी जाए।
मजिस्ट्रेट की नाइंसाफ़ी-
कोरोना महामारी के दौर में मजिस्ट्रेट द्वारा इस तरह का भेदभावपूर्ण, अमानवीय आदेश देना अफसोसजनक और हैरान करने वाला है। संविधान की भी भावना के खिलाफ अदालत कैसे इस तरह का आदेश दे सकती है ?
आम आदमी की जान की परवाह नहीं-
क्या जजों की जान ही कीमती है ? आम आदमी की जान की कोई कीमत नहीं है? क्या आम आदमी की जान बचाने के लिए अदालत भी गंभीर और संवेदनशील नहीं है ? क्या संविधान में जजों, राजनेताओं और नौकरशाहों को आम नागरिक से अलग और ऊपर रखा गया है ? अगर ऐसा नहीं है तो ये सब भी आम आदमी की तरह अपना इलाज क्यों नहीं करवाते हैं। ये सब सिर्फ़ अपने लिए ही बेहतर इलाज और सुविधाओं का इंतजाम क्यों करते या चाहते हैंं ? संविधान में तो सभी नागरिकोंं को एक समान माना गया है । फिर यह अपने को विशेष वर्ग और आम लोगों को अलग वर्ग में बांट कर भेदभाव वाला व्यवहार क्यों करते हैंं? उपरोक्त विशेष वर्ग सबसे पहले सिर्फ़ अपने लिए ही क्यों सोचता है ? मजिस्ट्रेट द्वारा जजों के लिए ऑक्सीजन कंसट्रेटर लेना भी तो यहीं साबित करता है। अदालत भी अगर सिर्फ़ अपना अपना सोचेंंगी और लोगों के प्रति ऐसा संवेदनहीन रवैया रखेगी तो आम आदमी की कौन सोचेगा ?
इन्हें दुनिया के ऐसे देशों से सीख लेना चाहिए जिनके राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक आम आदमी जैसा ही आचरण/ व्यवहार करते है। वह भारत की तरह अपने लिए वीवीआईपी वाली सुविधाएं नहीं चाहते।
वैसे भी बारह में से दस ऑक्सीजन कंसट्रेटर अपने यानी जजों के इस्तेमाल के लिए आवंटित करना तो सरासर नाइंसाफी है।
पुलिस की अमानवीय मांग-
वैसे पुलिस को भी अदालत से ऐसा अमानवीय अनुरोध बिल्कुल नहीं करना चाहिए था। केवल पुलिस वालों के ही इस्तेमाल के लिए ऑक्सीजन कंसट्रेटर पुलिस को नहीं मांगने चाहिए थे।
जज, राजनेता, नौकरशाह और पुलिस सब यदि अपने अपने इलाज के लिए ही ऑक्सीजन, दवाओं या अन्य संसाधनों पर ऐसे ही कब्जा कर लेंगे तो आम आदमी को तो इलाज के लिए कुछ मिलेगा ही नहीं।
बंदर की मौज –
इस मामले से एक कहानी याद आ गई जो सब लोगों ने सुनी भी होगी कि एक रोटी को लेकर दो बिल्लियों में लड़ाई हो गई। तो वह रोटी का बंटवारा/फैसला कराने के लिए बंदर के पास चली गई। बंदर ने बंटवारे के बहाने से सारी रोटी खुद खा ली।
ऐसा ही पुलिस के साथ हुआ वह अदालत गए थे अपने पुलिसवालों के लिए ऑक्सीजन कंसट्रेटर इस्तेमाल करने का आदेश पारित करवाने और उन्हें मिले सिर्फ दो कंसट्रेटर ही।
केजरीवाल का असली चेहरा उजागर-
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का तो अमानवीय चेहरा उस समय ही उजागर हो गया था जब उसने जजों और अफसरों के इलाज के लिए पांच सितारा होटलों को ही अस्पताल में तब्दील कर दिया। हालांकि हाईकोर्ट की नाराजगी के बाद जजों के लिए पांच सितारा होटल में इलाज के इंतजाम का आदेश वापस लिया गया। लेकिन अफसरों के लिए होटलों में इलाज की व्यवस्था जारी है।
दूसरी ओर आम कोरोना मरीज अस्पताल/बिस्तर, ऑक्सीजन और दवाओं के बिना तड़प तड़प कर मर रहे हैं।
इससे पता चलता है कि अमानवीय सरकारों यानी नेताओं की नजर में सिर्फ़ वीवीआईपी, मंत्रियों, जजों और नौकरशाहोंं की जान बचाना ही सबसे महत्वपूर्ण है और आम लोगों की जान की उसके लिए कोई कीमत नहीं है।
हालांकि संविधान में सबको बराबरी का अधिकार दिया गया है लेकिन यह जमीन पर और व्यवहार में कहीं नहीं दिखाई देता। जिन्हें लोग चुन कर सत्ता सौंपते हैं वहीं नेता ऐसे गिरगिट की तरह रंग बदल लेते हैं कि वह खुद को राजा मान लोगों के साथ गुलाम प्रजा जैसा व्यवहार करते हैं।
दिल्ली सरकार को अधिकार–
ऑक्सीजन कंसट्रेटर सरकार को ही सौंपें जाना सही है। वह ही अस्पताल आदि में जरूरत के अनुसार उनका इस्तेमाल/ वितरण कर सकती है।
सात मई को दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार से पूछा कि सरकार बताए जब्त किए जा रहे ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और बाकी ज़रूरी चीजों का वितरण किस तरह से किया जा रहा है। हाई कोर्ट ने हाल ही में द्वारका कोर्ट के उस आदेश के बारे में भी पूछा, जिसमें ज़ब्त किये गए ऑक्सीजन कंसेट्रेटर जजों और पुलिस स्टाफ को देने के आदेश किए गए थे।
दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि डीजी हेल्थ को उन्होंने वितरण करने के अधिकार दिए थे।ऐसे में हमें बताया जाए कि पुलिस द्वारा जब्त की जाने वाली चीजों को आगे कैसे बांटा हैं?
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