मां-बेटे को न्याय के लिए क्या मीडिया चलाएगा अभियान ?
प्रेस की आजादी पर हमला बताना दिमागी दिवालियापन।
इंद्र वशिष्ठ
अभिनेता सुशांत सिंह को न्याय दिलाने के नाम पर महीनों अभियान चलाने वाले मीडिया ने महाराष्ट्र में मां-बेटे को न्याय दिलाने के लिए कभी अभियान नहीं चलाया। रिपब्लिक चैनल के मदारी/ दरबारी पत्रकार अर्नब गोस्वामी को पुलिस गिरफ्तार नहीं करती तो लोगों को यह कभी पता भी नहीं चलता कि मां-बेटे ने अपनी मौत के लिए मदारी की तरह चीख चीख कर दूसरों पर आरोप लगाने वाले अर्नब गोस्वामी को जिम्मेदार ठहराया है। असल मेंं जब भी किसी बडे़ चैनल/अखबार का कोई पत्रकार आपराधिक मामले में आरोपी होता है तो पूरा मीडिया मौसेरे भाई की तरह एकजुट होकर उस मामले की खबर को दबा देता है। यहीं नहीं अगर पुलिस, सीबीआई, ईडी कभी कोई कार्रवाई करती भी है तो उसे प्रेस की आजादी पर हमला बता कर हंगामा शुरू कर दिया जाता है।
आत्महत्या के लिए मजबूर किया ?-
मई 2018 महाराष्ट्र के अलीबाग मेंं इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नाइक(53) और उसकी मां कुमुद ने आत्महत्या कर ली। पुलिस को मौके से आत्महत्या संंबंधी पत्र मिला था। जिसमें लिखा था कि अर्नब गोस्वामी ने 83 लाख रुपए, नितेश सारदा ने 55 लाख रुपए और फिरोज शेख ने 4 करोड़ रुपए की उनकी बकाया रकम का भुगतान नहीं किया। जिससे वह आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं। आत्महत्या के लिए मजबूर करने के लिए अर्नब गोस्वामी समेत तीनों को दोषी ठहराया गया।
अन्वय की पत्नी अक्षता ने मामला दर्ज कराया था लेकिन पुलिस ने यह कहकर मामला बंद कर दिया कि सबूत नहीं मिले।
उल्लेखनीय है कि उस समय महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार थी और यह भी सच्चाई है कि पुलिस सत्ता के इशारे के बिना सत्ता के दरबारी पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई करने की सोच भी नहीं सकती है।
बेटी ने लगाई गुहार-
अन्वय की बेटी अदन्या ने इस साल मई मेंं महाराष्ट्र के गृहमंत्री से इस मामले की दोबारा जांच कराने की मांग की। जिसके बाद पुलिस ने जांच की। पुलिस ने इस मामले मेंं फिरोज शेख और नितेश सारदा को गिरफ्तार करने के बाद अर्नब गोस्वामी को गिरफ्तार किया है।
पुलिस अफसर मिन्नत करते रहे-
अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। जिसमें साफ दिखाई देता है कि दरवाजे पर मौजूद अर्नब पुलिस के साथ चलने की बजाए अपने घर के अंदर चला जाता है। कमरे में अर्नब सोफे पर बैठा हुआ है पुलिस अफसर बहुत ही सभ्य तरीक़े से अर्नब से कह रहे हैं कि आपको हमारे साथ चलना होगा। लेकिन अर्नब साथ चलने से इंकार कर देता है इसके बाद पुलिस उसे पकड़ कर साथ ले जाती। अर्नब पकड़ से छूटने की कोशिश कर रहा है। इस वीडियो में पुलिस द्वारा अर्नब से मारपीट तो दूर बदतमीज़ी से भी बात करने का कोई दृश्य नहीं है। अर्नब की पत्नी भी वीडियो बनाती हुई दिखाई दे रही है।
यह बात सही हैं पत्रकार होने के कारण अर्नब के साथ पुलिस ने जिस तरह सभ्य व्यवहार किया वह हरेक आरोपी के साथ पुलिस नहीं करती है।
अर्नब को भी कानून का सम्मान करते हुए खुद ही पुलिस के साथ आराम से बिना तमाशा किए चले जाना चाहिए था।
परिवार को न्याय मिले-
महाराष्ट्र पुलिस या सरकार को दोष देने से पहले उस परिवार के बारे मेंं सोचना चाहिए जिसके दो सदस्यों ने अपनी जान देने के लिए अर्नब को जिम्मेदार ठहराया है। अन्वय की पत्नी ने मीडिया के सामने खुल कर अर्नब को मौतों के लिए जिम्मेदार ठहराया है।
दूसरा आत्महत्या संबंधी पत्र भी दो साल पहले का है। वह कोई पुलिस ने अर्नब को फंसाने के लिए कोई अब खुद तो लिखा नही है।
पुलिस की साख दांव पर-
महाराष्ट्र पुलिस ने अगर अब जांच ईमानदारी से की है तो सरकार को अपनी साख बचाने के लिए उन पुलिस वालों के खिलाफ भी कार्रवाई करनी चाहिए जिन्होंने दो साल पहले इस मामले मेंं ईमानदारी से जांच नहीं की थी।
अपराध का पत्रकारिता से क्या लेना देना-
यह सीधा सीधा आत्महत्या के लिए मजबूर या उकसाने का आपराधिक मामला है। इसका पत्रकारिता से भला क्या लेना देना ? इसी तरह फर्जी टीआरपी का मामला भी आपराधिक मामला है। यह दोनों ही मामले किसी खबर से संबंधित नहीं है। इसलिए इसे प्रेस की आजादी पर हमला मानने वाले अपने दिमागी दिवालियापन का ही परिचय दे रहे हैं।
आम पत्रकारों के शोषण पर चुप संगठन –
आम पत्रकारों को नौकरी से निकालने या उनके शोषण के खिलाफ पत्रकारों के ऐसे संगठन चुप रहते हैं लेकिन जब भी किसी मठाधीश पत्रकार के खिलाफ आपराधिक मामले में कार्रवाई शुरू होती तो यह पत्रकार संगठन तुरंत उसे प्रेस की आजादी पर हमला करार दे देते हैं।
पत्रकारों के संगठन किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े हुए है इसलिए यह सिर्फ उस दल या उससे जुड़े पत्रकार के पक्ष मेंं ही हमेशा बोलते हैं।
पत्रकार कानून से ऊपर नहीं, जांच जल्दी हो-
आपराधिक मामले में यदि किसी पत्रकार का नाम आरोपी के रुप में आता है या पुलिस उसे गिरफ्तार करती है तो पत्रकार संगठनों को सिर्फ़ एक ही मांग सरकार से करनी चाहिए कि एक तय समय मेंं जल्द से जल्द मामले की निष्पक्ष जांच से यह साबित किया जाए कि पत्रकार पर लगाए आरोप सही है या नहीं। अगर पत्रकार अपराध मेंं शामिल नहीं पाया जाता तो उसे प्रताड़ित या गिरफ्तार करने वाले पुलिस अफसरों को जेल भेजा जाना चाहिए। लेकिन पत्रकार संगठन ऐसी कोई मांग सरकार से करने की बजाए खुद ही बिना किसी जांच के पत्रकार के बेकसूर होने का ऐलान तो करते ही है साथ ही उसे प्रेस की आजादी पर हमला करार देते हैं।
पत्रकारों के नुमाइंदे बन बैठे चंद मठाधीश-
देशभर में हजारों समाचार पत्र/ पत्रिका और सैकड़ों न्यूज चैनल हैं लेकिन एडिटर्स गिल्ड में संपादकों की संख्या सैकड़ों मेंं ही हैं यानी हजारों संपादकों को गिल्ड ने सदस्य भी नहीं बनाया हुआ है। यह गिल्ड देशभर के हजारों संपादकों की नुमाइंदगी करने का दावा कैसे कर सकती है।
मठाधीशों ने किया मीडिया का पतन-
साल 2017 मेंं सीबीआई और ईडी ने एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए थे। उस समय कांग्रेस के दरबारी पत्रकारों ,उनके संगठनों और मोदी के विरोधी अरुण शौरी आदि ने भी उसे प्रेस की आजादी पर हमला बता कर मोदी पर हमला किया था।
अब भाजपा अपने दरबारी पत्रकार अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी को प्रेस की आजादी पर हमला बता रही है। जबकि ये दोनों ही मामले किसी भी तरह से प्रेस की आजादी पर हमला नहीं है।
वसूली वाले संपादक-
जी न्यूज के सुधीर चौधरी को दिल्ली पुलिस ने नवीन जिंदल से जबरन वसूली के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजा था। जी न्यूज का मालिक सुभाष चंद्र भी उस मामले में आरोपी था। यह वहीं सुधीर चौधरी है जिसने लाइव इंडिया चैनल मेंं झूठी खबर दिखाई कि सरकारी स्कूल की टीचर उमा खुराना छात्राओं से वेश्यावृत्ति कराती है मूर्ख दिल्ली पुलिस ने भी बिना जांच के उमा खुराना को जेल भेज दिया। जेल भेजने के बाद जांच की तो पता चला कि खबर झूठी थी। पुलिस ने उस समय सिर्फ़ रिपोर्टर को गिरफ्तार किया सुधीर चौधरी को छोड़ दिया था। सुधीर चौधरी को अगर उसी समय गिरफ्तार किया जाता तो वह उद्योगपति नवीन जिंदल से 100 करोड़ की वसूली का अपराध करने की हिम्मत नहीं करता।
पत्रकारों के किसी संगठन या एडिटर्स गिल्ड ने कभी इन उपरोक्त मठाधीशों की निंदा तक नही की।
बेकसूर पत्रकार के लिए आवाज नहीं उठाते-
कश्मीर टाइम्स के पत्रकार इफ्तिखार गिलानी को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल मेंं देश द्रोह के झूठे मामले में फंसा कर जेल मेंं डाल दिया था। अदालत मेंं सेना के अफसर की गवाही से ही पुलिस की झूठ की पोल खुल गई। पोल खुलने के बाद पुलिस ने गिलानी के खिलाफ मामला वापस लिया। गिलानी को सात महीने जेल मेंं नारकीय जीवन बिताना पड़ा।
पत्रकारों के संगठन ने कभी यह मांग नहीं की गिलानी को मुआवजा दिया जाए और उसे झूठा फंसाने वाले अफसरों को जेल भेजा जाए।
और भी हैं
रॉन्ग साइड चलने वाले वाहनों के खिलाफ विशेष कार्रवाई की जाएगी : लक्ष्मी सिंह
जस्टिस संजीव खन्ना बने भारत के 51वें मुख्य न्यायाधीश
मुस्लिम महिलाओं और शिया धर्मगुरु ने वक्फ बिल का किया समर्थन