✅ Janmat Samachar.com© provides latest news from India and the world. Get latest headlines from Viral,Entertainment, Khaas khabar, Fact Check, Entertainment.

कमिश्नर की वर्दी पर लागा दंगों का दाग़, पुलिस कमिश्नर एक बार फिर नाकारा साबित

इंद्र वशिष्ठ,

दिल्ली में हुए दंगों ने पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक को एक बार फिर से नाकारा और विफल कमिश्नर साबित कर दिया।

अमूल्य पटनायक दंगों के बदनुमा दाग़ लेकर कमिश्नर पद से रिटायर होंगे। दंगें में शहीद हुए दिल्ली पुलिस के हवलदार रतन लाल समेत सभी बेकसूर लोगों की मौत के लिए पुलिस कमिश्नर ही जिम्मेदार हैं। पुलिस का काम लोगों की सुरक्षा और कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने का है। इसलिए पुलिस बल का मुखिया होने के नाते पुलिस कमिश्नर ही जिम्मेदार है।

इसके अलावा जिले के डीसीपी,एसएचओ से लेकर बीट में तैनात सिपाही तक भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। वसूली के लिए तो गलियों की खाक तक छानने वाली थाना स्तर की पुलिस अगर सतर्क होती तो इतनी बड़ी तादाद में लोगों के एकत्र होने की सूचना पहले ही मिल जाती और उनको जमा होने से रोका जा सकता था।

ख़ुफ़िया एजेंसियों की पोल खुल गई-

इन दंगों ने दिल्ली पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र और केंद्रीय खुफिया एजेंसियों की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिया है। दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है। इसलिए पूर्वी दिल्ली में लगातार तीन दिनों तक हुए दंगों से गृहमंत्री अमित शाह की काबिलियत पर भी सवाल खड़े हो गए हैं।

देश की राजधानी में तीन चार-दिनों तक दंगे होते रहे और उन पर काबू पाने में पुलिस कमिश्नर विफल रहे।

कई पूर्व आईपीएस अधिकारियों का भी कहना हैं कि सीएए के विरोध में धरना प्रदर्शन लंबे समय से चल रहा है। इस आंदोलन के कारण ही हिंसा हुई है। ऐसे में पुलिस को पहले से ऐसे लोगों की पहचान करनी चाहिए थी और उन पर नजर रखना चाहिए थी जो इस आंदोलन को उकसा रहे थे। इससे हिंसा शुरू ही नहीं हो पाती। हिंसा ने पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र की पोल खोल दी।

ख़ुफ़िया तंत्र अगर सही तरह से काम कर होता तो दंगे होने से रोक सकते थे।

संवेदनशील इलाकों में लोगों के बीच क्या सुगबुगाहट चल रही है। इसकी भनक खुफिया तंत्र लगाने में विफल रहा या उसने गंभीरता से कोई कोशिश ही नहीं की।

पुलिस का ख़ुफ़िया तंत्र और थाने में बीट के सिपाही भी अगर सतर्क होते तो पहले ही जानकारी मिल जाती। जिसके आधार पर अतिरिक्त पुलिस बल तैनात करके स्थिति को बिगाड़ने से बचाया जा सकता था।

पुलिस शुरू से ही सतर्कता और सख्ती बरतती तो हालात बेकाबू नहीं होते-

हल्का लाठी चार्ज और आंसू गैस के गोले दागना, पुलिस ने जाफराबाद से लेकर भजनपुरा तक हुए उपद्रव के दौरान शुरू में यही रवैया अपनाया।

दंगाई पिस्तौल, लाठी-डंडों से लैस होकर चल रहे थे। पत्थर और पेट्रोल बम फेंके जा रहे थे। मकान, दुकान और धार्मिक स्थल को आग लगाई गई। खुलेआम हथियार लहराए जा रहे थे। गोलियां चलाई जा रही थी। लेकिन पुलिस बचाव की मुद्रा में दिखाई दी। क्योंकि पुलिस की तादाद कम थी। इसलिए पुलिस दंगाइयों को पकड़ने की कोशिश करने की बजाए उनको खदेड़ने की कोशिश करती रही।

जाफराबाद में खुलेआम फायरिंग करने और पुलिस वाले पर पिस्तौल तानने वाले शाहरुख को भी पुलिस ने तुरंत मौके पर ही नहीं पकड़ा।

25 फरवरी की शाम को यानी दंगों के तीसरे दिन पुलिस को दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए गए। हिंसाग्रस्त इलाकों में कर्फ्यू लगाया गया।

आईपीएस की काबिलियत पर सवाल-

पुलिस कमिश्नर सिस्टम में पुलिस के पास ही इतने अधिकार है कि उसे दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए किसी से आदेश के लिए इंतजार की जरूरत ही नहीं है। घटनास्थल पर मौजूद पुलिस अफसर खुद ही दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए फैसला ले सकते हैं। इसके बावजूद तीन दिन तक दंगों पर काबू न पाया जाना पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अधिकारियों की काबिलियत पर सवाल खड़े करता है।

लोकतंत्र में शांति पूर्वक विरोध प्रदर्शन करना सबका अधिकार है।

शांतिपूर्वक आंदोलन करने वाले लोगों की सुरक्षा व्यवस्था करना पुलिस का काम है।

शाहीन बाग/ जामिया के आंदोलनकारियों पर गुंडों द्वारा 2-3 बार गोलियां चलाई गईं। इससे पुलिस की भूमिका पर सवालिया निशान लग गया।

अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा में दम है तो खुद गोली मार कर दिखाएं।-

दिल्ली विधानसभा के चुनाव के दौरान मंत्री अनुराग ठाकुर द्वारा “देश के गद्दारों को गोली मारो सालो” को जैसे भड़काने वाले भाषण खुलेआम दिए गए। इसके बाद ही शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे लोगों पर गुंडों द्वारा गोलियां चलाई गईं। हालांकि गोली चलाने के मामले में एक नाबालिग और कपिल गुर्जर को मौके पर ही पकड़ गया।

अनुराग ठाकुर की तरह ही कपिल मिश्रा ने भी इसी तरह भड़काने वाले भाषण दिए। लेकिन पुलिस ने इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।

गोली मारने का जो काम वह उकसा कर दूसरों से करवाना चाहते हैं। वह खुद क्यों नहीं करके दिखाते हैं ?

असल में ये नेता धूर्त होते हैं लोगों को इनके बहकावे और उकसाने में नहीं आना चाहिए। लोगों को ख़ास कर युवाओं को अपनी जिंदगी ऐसे लोगों के चक्कर में बर्बाद नहीं करना चाहिए। नेता तो राज सुख भोगता है और इनके उकसाने में आने वाला गोली चला कर जेल भोगता है। लोगों में अगर जरा भी अक्ल है तो इन नेताओं से कहना चाहिए कि तुम खुद जाकर गोली मार कर दिखाओ तो पता चलेगा कि तुम दोगले नहीं हो। लोग अगर ऐसे नेताओं को पलट कर जवाब देने लग जाएं तो इनकी अक्ल ठिकाने लग जाएगी।

कपिल मिश्रा जानबूझकर अपने समर्थकों के साथ उस जगह गया जहां पर मुस्लिम महिलाओं द्वारा शांतिपूर्वक धरना प्रदर्शन किया जा रहा था। इस वजह से दंगे हुए और आसपास के इलाकों में भी फ़ैल गए।

सत्ता सुख ही असली धर्म-

यह वही कपिल मिश्रा है जिसे मंत्री पद से हटा दिया तो उसे केजरीवाल में बुराईयां ही बुराईयां दिखाई देने लगी और केजरीवाल के खिलाफ बोलने लगा। उसके पहले यह आराम से न केवल मंत्री पद का सुख भोग रहा था बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में बहुत ही अपमानजनक भाषा में मंच से बोलता था। अनुपम खेर के सामने मोदी के बारे बदतमीजी से बोलने का उसका वीडियो दुनिया ने देखा है। सत्ता सुख पाने के लिए फिर वह मोदी के चरणों में ही गिर गया।

इन जैसे लोगों का एक ही धर्म है कि किसी भी तरह सत्ता सुख मिल जाए।

अब भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ चुके कपिल मिश्रा को लोगों ने भी नकारा दिया।

सुर्ख़ियो में रहने के लिए अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा जैसे लोग भड़काने वाले बयान देते है।

गोलियां चली पर आपा नहीं खोया-

जिस मुस्लिम समुदाय के लोगों को दंगों के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। जिनकी महिलाएं पर्दे में रहती हैं।

उस समुदाय की महिलाओं द्वारा इतने लंबे समय से शांतिपूर्ण तरीके से शाहीन बाग में धरना दिया जा रहा है। गुंडों द्वारा उन पर गोलियां भी चलाई गईं इसके बावजूद इन लोगों ने आपा नहीं खोया और संयम का परिचय दिया।

सरकार का कोई नुमाइंदा इन लोगों से बात करने या उनको समझाने के लिए शाहीन बाग नहीं गया। इन लोगों को गृहमंत्री आदि के निवास तक मार्च तक करने नहीं दिया गया। अब ऐसे में इनकी बात सरकार तक कैसे पहुंचे। सरकार की नीयत और कानून सही है तो वह इन लोगों से मिलने और बात करने से क्यों डरती है।

सत्ता के लठैत आईपीएस-

पुलिस की भूमिका – शांतिपूर्वक धरना, प्रदर्शन और मार्च की इजाजत न देकर पुलिस लोगों के संवैधानिक/ लोकतांत्रिक अधिकार का हनन कर रही है।

सरकार चाहे किसी भी दल की हो पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसर हमेशा सत्ता के लठैत की तरह ही काम करते हैं।

आईपीएस अफसर महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती के लिए नेताओं के सामने नतमस्तक हो जाते हैं।

कांग्रेस के राज में 2011 में रामलीला मैदान में रात के समय तत्कालीन पुलिस कमिश्नर बृजेश कुमार गुप्ता और आईपीएस धर्मेंद्र कुमार के नेतृत्व में पुलिस ने सोते हुए महिलाओं और बच्चों पर लाठीचार्ज किया और आंसू गैस का इस्तेमाल कर फिंरगी राज़ को भी पीछे छोड़ दिया। सलवार पहन कर भाग रहे रामदेव को पकड़ा था।

सरकार का विरोध करना देशद्रोह नहीं होता-

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता का कहना है कि जब तक कोई प्रदर्शन हिंसात्मक नहीं हो जाता,तब तक सरकार को उसे रोकने का अधिकार नहीं है।

सरकारें हमेशा सही नहीं होती। बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र के खिलाफ है।

जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा कि अफसोस की बात है कि आज देश में असहमति को देशद्रोह समझा जा रहा है। असहमति की आवाज को देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों पर चोट है।

सरकार और देश दोनों अलग हैं। सरकार का विरोध करना आपको देश के खिलाफ खड़ा नहीं करता।

हाल के दिनों में विरोध करने वालों को देशद्रोही बता दिया गया। उन्होंने कहा अगर किसी पार्टी को 51 फीसदी वोट मिलता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी 49 फीसदी लोग पांच साल तक कुछ नहीं कहेंगे। लोकतंत्र 100 फीसदी लोगों के लिए होता है। इसलिए हर किसी को लोकतंत्र में अपनी भूमिका का अधिकार है।

About Author