सहाना घोष,
कोलकाता| ‘कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।’ दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों को एक कैब ड्राइवर गाजी जलालुद्दीन (65) ने साकार कर दिखाया है।
पढ़ने में अच्छे थे, लेकिन गरीबी ने पढ़ने नहीं दिया। स्कूली शिक्षा से वंचित रहने वाले जलालुद्दीन को मुफलिसी के दिनों में भीख तक मांगनी पड़ी। लेकिन, वंचितों को मुख्यधारा में लाने के अपने अभूतपूर्व प्रयास की बदौलत आज वह अपने इलाके सुंदरबन में दो स्कूलों और एक अनाथ आश्रम का संचालन कर रहे हैं।
नजर का चश्मा लगाए जलालुद्दीन सवारियां ढोने से थोड़ा विराम लेते हुए आईएएनएस से कहते हैं, “मुझे नहीं मालूम कि कैब चलाकर मैं स्कूलों और अनाथालय को कितने दिनों तक चला पाऊंगा। मेरे दो बेटे भी कैब चलाते हैं और मेरे इस प्रयास में मेरी मदद करते हैं। स्कूलों में कुल 425 छात्र हैं। इन्हें एक गैर सरकारी संगठन (सुंदरबन ऑरफानेज एंड सोशल वेल्फेयर ट्रस्ट) के रूप में संचालित किया जा रहा है, फिर भी हमें सरकार से कोई मदद नहीं मिल सकी। मैंने स्थानीय जिला प्रशासन से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन नतीजा सिफर रहा।”
जलालुद्दीन के स्कूल कोलकाता से लगभग 60 किलोमीटर दूर सुंदरबन (दक्षिण परगना जिले में) के जॉयनगर इलाके में स्थित हैं।
दोनों स्कूलों में कुल 25 कर्मचारी हैं, जिनमें 21 शिक्षक हैं और यह पूरी तरह गाजी द्वारा टैक्सी से की गई कमाई पर निर्भर हैं। इसके अलावा कुछ लोग उन्हें चंदा देते हैं जिन्हें पता चलता है कि वह लोकोपकारी कार्य करते हैं। उनके यात्री भी इस बात की जानकारी होने पर अलग से कुछ पैसे दे देते हैं, जिससे स्कूलों के संचालन में मदद मिलती है।
उनकी कैब में उनका मोबाइल नंबर (9735562504) लिखा है और मदद के लिए एक अपील की गई है, जिसमें लिखा है, “टैक्सी से होने वाली पूरी आय अनाथ मिशन, सिक्खायतन मिशन तथा अनाथों के लिए आईआईपीएफ स्कूलों पर खर्च होती है। इसलिए इस टैक्सी के खिलाफ यातायात से जुड़ा कोई मामला मत दायर कीजिए।”
गाजी का समय दक्षिण 24 परगना जिले के नरेंद्रपुर तथा इसी जिले में सुंदरबन के जॉयनगर में बीतता है। सप्ताह में कुछ दिन वह नरेंद्रपुर में कैब चलाते हैं, बाकी समय सुंदरबन में बिताते हैं।
उनकी पत्नी दोनों स्कूल में निरीक्षक का काम करती हैं। उन्होंने इस बात का खुलासा किया कि उनका परिवार एक स्कूल के परिसर में ही रहता है। वह अपनी पत्नी को अपनी प्रेरणा मानते हैं।
बिना किसी पश्चाताप या दर्द के गाजी जलालुद्दीन अपनी कहानी बयां करते हुए कहते हैं, “जब मैं सात साल का था, तब मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी। मैं द्वितीय कक्षा में अव्वल आया था और अगली कक्षा में जाने वाला था। लेकिन, मेरे माता-पिता किताबों पर होने वाला खर्च को वहन करने में अक्षम थे, इसलिए मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इसी कसक ने मुझे वंचित तबके के लिए कुछ करने को प्रेरित किया।”
एक स्कूल शुरू करने के उनके सपने में सन 1998 में पर लगे। लेकिन, राह इतनी आसान नहीं थी और सफर पूरा करने में कई बाधाएं आईं।
उन्होंने कहा, “मेरा बचपन कोलकाता की सड़कों पर भीख मांगते हुए गुजरा और उसके बाद मैंने रिक्शा चलाना शुरू किया। धीरे-धीरे मैंने टैक्सी चलाना शुरू किया। 1980 से मैं बच्चों के लिए किताबें तथा कपड़ों की व्यवस्था करने में लगा रहता था, ताकि वे स्कूल जा सकें। मैंने युवाओं को गाड़ी चलाना भी सिखाया, ताकि वे अपनी आजीविका चला सकें।”
गाजी ने कहा, “जब मेरी वित्तीय स्थिति थोड़ी मजबूत हुई, तो मैंने एक छोटा सा प्राथमिक स्कूल खोला, जिसमें 16 बच्चे थे। यह उस जमीन (चार से पांच कट्ठा) पर शुरू हुआ, जिसे मैंने खरीदा था। और अधिक जमीन खरीदने के बाद स्कूल का आकार बड़ा हो गया, जो फिलहाल स्कूल सह अनाथालय है।”
बाद के वक्त में, जमीनों के दान तथा स्थानीय लोगों तथा यात्रियों के दान से उन्होंने सात कट्ठा जमीन खरीदी, जिस पर दूसरा स्कूल बना।
उन्होंने कहा, “दोनों स्कूलों में, बच्चों को चौथी कक्षा तक पढ़ाया जाता था। बाद में हमने एक स्कूल को 10वीं कक्षा तक कर दिया, जिसके लिए पश्चिम बंगाल शिक्षा बोर्ड से मान्यता ली गई। टैक्सी से मेरी आय रोजाना लगभग 450 रुपये है। खाने तथा वाहनों की मरम्मत पर खर्च होने से बचा पैसा स्कूलों में लगाया जाता है।”
यात्री को बिठाने के लिए रवाना होने से पहले गाजी ने कहा, “मैं स्कूलों का विस्तार करना चाहता हूं और मेरा लक्ष्य माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक स्कूल खोलना है। मुझे लोगों पर विश्वास है और उम्मीद करता हूं कि वे हमारी सहायता करेंगे, क्योंकि सुंदरबन में अभी भी बेरोजगारी तथा शिक्षा की कमी का मूल कारण गरीबी है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण सुदूरवर्ती इलाकों में लोगों का जीवन बेहद दुरुह है। उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में शिक्षा उनकी दीर्घकालिक तौर पर मदद करेगी।”
–आईएएनएस
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