दिल्ली। अपनी रोज़ी रोटी और ग़रीब परिवार का पेट पालने के लिए जब एक बेरोज़गार दिल्ली में ऑटो ख़रीदने जाता है, तो उसे 1,85,000 रूपये का नया ऑटो 4,50,000 से 4,70,000 तक में मिलता है। असल कीमत से दुगने से भी ज़्यादा पैसे में ऑटो मिलने का कारण है दिल्ली सरकार और फाइनेंस माफ़िया के बीच मोटी कमाई के लिए सांठगांठ। ऑटो घोटाला दिल्ली के उन हज़ारों गरीब ऑटो चालकों के साथ छलावा है जिनके समर्थन से आम आदमी पार्टी आज सत्ता में बैठी है।
फाइनेंस माफ़िया और दिल्ली सरकार के गठजोड़ से सबसे पहले किसी पुराने ऑटो को किसी और के लाइसेंस बैज के नाम किया जाता है। फिर उस पुराने ऑटो को स्क्रैप कराके स्क्रैपिंग सर्टिफिकेट ली जाती है। ट्रांसपोर्ट विभाग इसके बाद नो ड्यू सर्टिफिकेट देती है। इसके बदले नया ऑटो ख़रीदने के लिए दिल्ली सरकार के ट्रांसपोर्ट ऑथोरिटी की मिलीभगत से एलओआई (लेटर ऑफ इंटेंट) जारी करवा दिया जाता है, और कानून के आँखों में धूल झोंकते हुए, सभी नियमों और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को धता बताते हुए ग़रीब ऑटो चालक को नया ऑटो फाइनेंस करवा दिया जाता है।
हर कदम पर दिल्ली सरकार के परिवहन विभाग के अधिकारियों की सांठगांठ होती है, या हस्ताक्षर होता है। दिल्ली में लगभग सभी ऑटो फाइनेंस पर ही बिकते हैं। इस पूरे गोरखधंधे में फाइनेंसर की मुख्य भूमिका होती है जो सरकारी अधिकारियों, नेता, मंत्री से सांठ गाँठ करके ऑटो ड्राईवर का शोषण करता है। आम आदमी पार्टी ने सत्ता का सफ़र ऑटो चालकों के कंधे पर बैठकर पूरा किया। पार्टी को 67 सीटें दिलाने में इन मेहनतकश और जुनूनी ऑटो चालकों का सबसे बड़ा योगदान था।
दिल्ली में हर एक ऑटो की ख़रीद में 2,65,000 से 2,85,000 रूपये के कालेधन का लेनदेन हो रहा है। आज जब देशभर में पार्टियाँ काले धन पर बड़े बड़े दावे और बहस कर रही हैं तो दिल्ली सरकार में बैठे लोग ग़रीबों के पसीने की कमाई मार के काला धन बनाने में व्यस्त हैं।
1,85,000 रूपये का नया ऑटो 4,50,000 में मिलना आज इतनी आम बात हो चुकी है कि किसी ऑटो चालक को आश्चर्य नहीं होता। सरकार को भी कोई दिक्कत नहीं होती। सब कुछ नॉर्मल लगता है। यह घोटाला सिस्टम में इस कदर रच बस गया है कि ऑटो की असल कीमत ही 4,50,000 मान ली गयी है।
लेकिन जैसे ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ऑटो देने की बात आती है, जैसे ही 1,85,000 का ऑटो 1,85,000 में मिलने वाला होता है, खुद सरकार ही कह देती है कि भ्रष्टाचार हो गया, वो भी बिना किसी सबूत या आधार के! और ग़रीब ड्राइवरों को सही कीमत पर उनका ऑटो नहीं मिल पाता। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जब तक ऑटो ख़रीद में भ्रष्टाचार होता है तब तक तो सब कुछ नॉर्मल, लेकिन जैसे ही सही कीमत पर ऑटो मिलने वाला होता है तो सरकार ही कह देती है कि भ्रष्टाचार हो गया! जब फाइनेंस माफ़िया के इशारे और मिली भगत से स्कीम रोकना था तो दिल्ली सरकार सीबीआई का नाम लेती है, क्या सरकार ऑटो घोटाले पर भी सीबीआई जाँच करवाएगी?
इस तरह के कुकर्मों के पीछे सरकार से मिलीभगत करने वाले ऑटो फाइनैंसर्स का सबसे बड़ा उद्देश्य होता है कि ग़रीब ऑटो ड्राईवर या तो किराए पर ही गाड़ी चलाता रहे, या फिर कमा कमा के हर महीने उन्हें पैसे देता रहे। फाइनेंसर का बंधुआ बना रहे, कभी सही मायने में ऑटो मालिक ना बन पाए।
मेहनतकश ऑटो ड्राईवर दिन भर पसीना बहाता है ताकि अपने परिवार का पेट पाल सके, दिल्ली जैसे शहर में रोज़ी रोटी कमा सके। सवारियों को लाते ले जाते वक़्त जिस मीटर के आधार पर वो चलता है उसकी सेटिंग ऑटो के सही दाम यानी 1.85 लाख के अनुसार की जाती है, ना कि कालाबाज़ारी वाली कीमत 4.50 से 4.70 लाख़ पर।
हर महीने की उसकी मोटी किश्त कितनी कम होती अगर दिल्ली सरकार के नाकों तले यह घोटाला नहीं होता। अगर लाइसेंस बैज वाले सभी ऑटोचालकों को सही कीमत पर यानि 1 लाख 85 हज़ार में ऑटो मिल जाए तो मीटर रेट कम हो सकता है और ऑटो चालक का मुनाफ़ा भी बढ़ जाएगा। मतलब कि ऑटो घोटाले की रोकथाम से दिल्ली के आम लोग और ऑटो ड्राइवर्स दोनों का सीधा भला होगा। दिल्ली में कभी किसी सवारी से किराए को लेकर कोई बहस या झड़प नहीं होती। कितना खुशहाल होता दिल्ली का ऑटो चालक?”
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