डॉ. वेदप्रताप वैदिक,
नोटबंदी ने आम लोगों को जैसी मुसीबत में डाला है, वैसी मुसीबत तो भारत के लोगों ने न तो युद्धों के समय देखी और न ही आपात्काल के दौरान! इंदिरा गांधी के ‘आपात्काल’ के मुकाबले नरेंद्र मोदी का ‘आफतकाल’ लोगों के लिए ज्यादा प्राणलेवा सिद्ध हो रहा है लेकिन क्या वजह है कि देश में बगावत का माहौल बिल्कुल भी नहीं है? लोग दिन-रात लाइनों में खड़े हैं, खड़े-खड़े दम भी तोड़ रहे हैं, किसानों की खेती चौपट हो रही है, मजदूर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, दुकानदार मंदी के शिकार हुए जा रहे हैं, कर्मचारियों को तनखा तक नहीं मिल पा रही है, शादियां मातम में बदल रही हैं और इन सब पर सान चढ़ा रहे हैं, विरोधी दल ! वे कह रहे हैं कि आजादी के बाद की यह सबसे नाकारा सरकार है। नरेंद्र मोदी तानाशाह है। वह मुहम्मद तुगलक का नया अवतार है। विरोधी संसद नहीं चलने दे रहे हैं। इसके बावजूद उनका ‘भारत बंद’ विफल हो गया? क्यों हो गया? क्या वजह है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप्र के मुख्यमंत्री अखिलेश अन्य विरोधी नेताओं की तरह खुलकर मैदान में नहीं आ रहे हैं? वे इसलिए नहीं आ रहे हैं कि उनकी उंगलियां जनता की नब्ज़ पर हैं।
उन्होंने भांप लिया है कि भारत की जनता यह मानकर चल रही है कि मोदी ने जो नोटबंदी की है, वह अपने या भाजपा के स्वार्थ के लिए नहीं की है। वह उन्होंने की है, देशहित के खातिर ! काला धन खत्म करने के लिए। जो भी नेता आज मोदी का विरोध करेगा, देश की जनता उसे चाहे मुंह पर कुछ नहीं कहेगी लेकिन दिल में मानेगी कि वह नेता काले धनवालों के साथ है या वह इसलिए चिल्ला रहा है कि वह खुद काले धन के खजाने पर फन फैलाए बैठा है। इसीलिए नेताओं की सही बात का भी जनता पर कोई असर नहीं हो रहा है, हालांकि वे साधारण जन के दुख-दर्दों को संसद में और उसके बाहर भी जमकर गुंजा रहे हैं।
यहां एक खास सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि इतनी तकलीफों के बावजूद जनता ने भाजपा को महाराष्ट्र और गुजरात के स्थानीय चुनावों और मप्र के उप-चुनावों में इतने प्रचंड बहुमत से कैसे जिता दिया? क्यों जिता दिया? इसका मूल कारण तो मैं ऊपर बता चुका हूं। दूसरा कारण जरा गहरा है। हमें लोगों के अन्तर्मन में उतरना पड़ेगा।
आम आदमी, जिसकी आमदनी 100 रु. रोज भी नहीं है, वह सोचता है कि देश में यह पहली बार हुआ है कि अमीरों पर नकेल कसी जाएगी। हमारे खून-पसीने की कमाई पर गुलछर्रे उड़ानेवाले अमीरों का काला धन अब कागज के टुकड़ों में बदल जाएगा। वे अमीरों पर आनेवाले दुख से अंदर ही अंदर सुखी हैं (उन्हें क्या पता कि अमीरों और नेताओं ने लाइन में खड़े हुए बिना ही अपने करोड़ों-अरबों रु. रातों-रात सफेद कर लिये हैं)। देश के आम आदमी को यह जानने की जरुरत भी महसूस नहीं होती कि नोटबंदी के इस फैसले से काले धन पर रोक कैसे लगेगी? हां, इस नोटबंदी ने देश के औसत आदमी को भी काले को सफेद करने की कला सिखा दी है। जन-धन योजना में बैंक का खाता खोलनेवाले करोड़ों गरीबी की रेखा के नीचेवाले लोगों के पास इतने पैसे कहां से आ गए कि उन्होंने तीन हफ्तों में ही 75 हजार करोड़ रु. जमा करवा दिए। सरकार ने कालेधन को सफेद करने की छूट चार माह तक दी थी, उसमें सिर्फ 65 हजार करोड़ रु. आए और एक-एक रुपए से खुलनेवाले खातों में हर हफ्ते अरबों रु. कैसे जमा हो रहे हैं? दो हजार के नोट पर अब कालेधन की रेल पहले से भी तेज दौड़ रही है। शहरों में जो पहले मजदूरी से पैसा कमाते थे, वे अब बैंकों की कतारों से पैसा बना रहे हैं।
‘आपात्काल’ को विनोबा भावे ने ‘अनुशासन-पर्व’ कहा था लेकिन इस ‘आफतकाल’ को मैं ‘अराजकता-पर्व’ कहता हूं। जनता भयंकर आफत का सामना कर रही है लेकिन वह अराजक नहीं हुई है। न वह नेताओं को पकड़-पकड़कर मार रही है, न बैकों को लूट रही है और न ही मालदारों, नेताओं और अफसरों के काले धन पर सीधा हमला कर रही है। भारत की जनता अनंत धैर्य का परिचय दे रही है लेकिन सरकार अराजक हो गई है। उसके धैर्य का क्या हाल है? वह कब टूटता है और कब बंध जाता है, कुछ पता नहीं। मोदी ने जब 8 नवंबर की रात को नोटबंदी की घोषणा की थी, तब ऐसा लग रहा था कि यह आजादी के बाद का सबसे साहसिक और क्रांतिकारी काम हमारी सरकार कर रही है लेकिन अभी हफ्ता भर भी नहीं बीता कि प्रधानमंत्री की आंख में आंसू और जुबान में कंपन उभर आया। इसलिए नहीं कि देश के लोग भयंकर मुसीबत में फंस गए हैं बल्कि इसलिए कि लेने के देने पड़ गए हैं। जो तीर मोदी ने काले धन पर चलाया था, वही लौटकर (बूमरेंग होकर) सरकार की सीने में घुसा जा रहा है। इसीलिए सरकार अराजक हो गई है। सुबह वह एक घोषणा करती है, दोपहर को दूसरी और रात को तीसरी। कभी वह एक कदम आगे रखती है, कभी दो कदम पीछे हटाती है और कभी लड़खड़ाती है। हम मनमोहनसिंह को मौनी बाबा कहते रहे लेकिन तीन हफ्ते से संसद में मोदी बाबा ने मौन क्यों धारण किया हुआ है? संसद में मौन इसलिए कि विरोधियों की सुननी पड़ेगी, जबकि सभाओं में मुखर, क्योंकि वहां अपनी ही सुनाते जाना है। अपनी ही दाल दलते रहना है। क्या आज तक कोई प्रधानमंत्री किसी सभा में रोया है? चीन से हारने के बाद क्या नेहरु और राजनारायण से हारने के बाद क्या इंदिरा गांधी कभी रोईं? यह रोना चक्र-व्यूह में फंसे अभिमन्यु का रोना है। वह आज भी नहीं जानता कि इस चक्र-व्यूह से वह बाहर कैसे निकलेगा?
क्या उसे पता नहीं था कि नकदी रुपया और काला धन एक ही बात नहीं है? जिन—जिन देशों ने नकदी पर हमला बोला और नोटबंदी की, वे बर्बाद हो गए। हमारी सरकार ने जिंबाबवे, घाना, नाइजीरिया, अर्जेंटीना, बर्मा और सोवियत संघ से भी कुछ नहीं सीखा। देश के 80 प्रतिशत लोग अपना काम नकद से ही चलाते हैं? उनका धन सफेद धन है। सबसे ज्यादा नकद काला धन नेताओं के पास होता है। बाकी सभी काले धनवाले अपना पैसा डाॅलर, सोने, जमीन, ब्याज और व्यापार-उद्योग में लगाए रखते हैं। क्या इस सरकार की हिम्मत हुई कि इन काले धनवालों पर छापे मारे? विदेशों में छिपे कालेधन पर क्या वह हाथ डाल सकी? क्या इन सत्तारुढ़ नेताओं ने अपना काला धन खुद आगे होकर बैंकों में जमा कराया? क्या उन्होंने कोई सत्साहस की मिसाल पेश की? सरकार ने नोटबंदी के नाम पर बस, दुस्साहस किया, देश के गरीबों, ग्रामीणों, अनपढ़ों, मेहनतकशों, ईमानदार और भले लोगों पर। यदि आफत भुगत रहे इन करोड़ों लोगों को सरकार कुछ राशि सेंत-मेंत में दे सकी तो उसका गुनाह माफ हो सकता है, वरना चुनाव बताएंगे कि नोटबंदी एक गुनाह बेलज्जत रही।
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