तरुण बसु, नई दिल्ली: नागपुर से प्रणब की जो तस्वीरें देखने को मिलीं, उसे एक कांग्रेस नेता के शब्दों में हजम करना मुश्किल था। जो शख्स धर्मनिरपेक्षता के रंग में रंगे रहे, जिदंगी के कई साल कांग्रेस पार्टी को दिए और फिर संविधान कायम रखने की जिम्मेदारी के साथ राष्ट्रपति बने, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसे संगठन के प्रमुख के साथ मंच साझा कर रहे थे और उनकी आवभगत का आनंद ले रहे थे। यह उन्हें उन मूल्यों व आदर्शो का समर्थन करता दिखाता है, जिनके विरोध में वे हमेशा खड़े रहे और संघर्ष करते रहे।
मुखर्जी के पहली बार हिंदूवादी संगठन के मुख्यालय में जाने के विवाद पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक वैचारिक सलाहकार ने मध्यम स्तर के एक कांग्रेस नेता से पूछा, “आप उस सरकार का हिस्सा थे, जिसने 1975 में और फिर 1992 में आरएसएस को प्रतिबंधित किया। क्या आपको नहीं लगता कि आपको हमें बताना चाहिए कि उस समय आरएसएस में क्या बुराई थी, जो अब उसका गुण बन गया है?”
प्रणब की बेटी शर्मिष्ठा सहित कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं ने ऐसे संगठन से मिले निमंत्रण को स्वीकार करने पर सवाल उठाए, जो वामपंथी-उदारवादी- धर्मनिरपेक्षता की स्थापना को नापसंद करता आया है। न सिर्फ समर्पित, बल्कि चिंतित नागरिक भी भी देश में नफरत और पूर्वाग्रह वाले माहौल में अपनी व्यथा जाहिर कर रहे हैं और अल्पसंख्यकों पर सुनियोजित हमले और सामाजकि रूप से सताए दलितों व पिछड़ों के दमन के लिए आरएसएस और उससे संबद्ध संघ परिवार के संगठनों की विचारधारा को दोषी ठहराते रहे हैं।
कई लोगों ने आवाज उठाई है कि यदि इस तरह से नफरत का जहर फैलाने दिया जाता रहा, तो यह भारत के उस बहुपक्षीय, बहुसंख्यक और बहुसांस्कृतिक सामाजिक संरचना व तानेबाने को खत्म कर सकता है, जो देश को इतना अनोखा व अद्वितीय बनाता है।
कथित रूप से हिंदू राष्ट्रवादी समूहों से संबद्ध कमसिन लड़कियों के खिलाफ क्रूर हिंसा के बाद अप्रैल में देशभर में चलाए गए ‘हैशटैगनॉटइन माइनेम’ विरोध अभियान के दौरान ऐसे संदेश छाए रहे कि “आज हम घृणा की राजनीति का सामना कर रहे हैं जो हमारे देश के बड़े हिस्सों में फैल गया है .. मुसलमान अगले दौर के हमलों के डर के साये में रहते हैं, यहां तक कि संविधान में दलितों और आदिवासियों को जो अधिकार मिले हैं, उस पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।”
83 वर्षीय मुखर्जी ने बढ़ते ध्रुवीकरण के इस माहौल में पुराने कैबिनेट और पार्टी के कुछ सहयोगियों की अपील को अनदेखा कर दिया। राष्ट्रीय स्तर पर टेलीविजन पर सीधे प्रसारित भाषण में मुखर्जी ने कहा “भारत की आत्मा बहुलवाद और सहिष्णुता में बसती है” और “धर्मनिरपेक्षता व समावेश हमारे लिए विश्वास का विषय है।”
उन्होंने उस आरएसएस रैंक और फाइल की याद दिलाई, जिन्होंने हिंदू सर्वोच्चवादी विचारधारा का प्रचार किया और जिसके संस्थापक ने मुसलमानों और ईसाइयों को ‘आक्रमणकारी’ माना। यह (विभिन्न धर्म) वह चीज है जिससे “हमारी संस्कृति, विश्वास और भाषा की बहुतायत भारत को विशेष बनाती है” और “धर्मशास्त्र, धर्म, क्षेत्र, घृणा और असहिष्णुता के सिद्धांत व पहचान के आधार पर हमारे राष्ट्रवाद को परिभाषित करने का कोई प्रयास हमारी राष्ट्रीय पहचान को धूमिल करने का ही काम करेगा।”
अपने अब तक के राजनीतिक करियर में मुखर्जी जिन मान्यताओं और मूल्यों पर कायम रहने के लिए जाने जाते रहे, क्या उन्हें ताक पर रखकर उनका नागपुर जाने का फैसला गलत था?
उनकी सोच की एक झलक उनके भाषण में दिखाई पड़ती है, जिसमें उन्होंने इस बात पर दुख जाहिर किया कि ‘क्रोध की अभिव्यक्ति’ राष्ट्रीय संरचना को पूरी तरह से नष्ट कर रही है। उन्होंने कहा, “बातचीत न केवल प्रतिस्पर्धी हितों को संतुलित करने के लिए, बल्कि उन्हें सुलझाने के लिए भी जरूरी है .. सिर्फ संवाद के माध्यम से हम बिना हमारे राजनीति के भीतर अस्वास्थ्यकर संघर्ष के जटिल समस्याओं को हल करने की समझ विकसित कर सकते हैं।
संवाद और समायोजन लोकतांत्रिक कार्यकलापों के आधारशिला हैं और उनकी अनुपस्थिति अक्सर लोकतंत्र की मौत की घंटी बजती है।
अपनी किताब ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाई’ में हार्वर्ड के प्रोफेसरों स्टीवन लेविट्स्की और डेनियल जिबलाट ने आज अमेरिकी लोकतंत्र में मौजूद ‘चरम कट्टरपंथी विभाजन’ के बारे में बात की है जो राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में सामाजिक धारणाओं व मान्यताओं के टूटने को दर्शाता है, यह न सिर्फ डेमोक्रेट और रिपब्लिकन नेताओं के बीच बढ़ते नीतिगत मतभेद में नजर आ रहा है, बल्कि नस्ली और धार्मिक मतभेदों का भी बढ़ना नजर आ रहा है और लोकतंत्र की सुरक्षा रेलिंग को भी नुकसान पहुंच रहा है।
भारत आज भी दोराहे पर खड़ा है, जो शायद 71 साल के इतिहास में अभूतपूर्व है। जैसे ही कोई राष्ट्रीय प्रवचन दिनभर में चर्चा का विषय बन जाता है, सोशल मीडिया पर अक्सर दो चरम विभाजनकारी और नफरत फैलाने वाली विचारधाराओं के बीच ठन जाती है। इससे लोकतंत्र के हिमायती आम नागरिकों, खासकर युवा, जो परिवर्तन और प्रगति के लिए उत्सुक हैं, उन्हें निराशा हाथ लगती है।
देश में हाल के चुनावों में बुरी स्थिति देखने को मिली है। न सिर्फ शपथ ग्रहण करने वाले राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच, बल्कि विचारधाराओं के बीच भी विरोध देखने को मिला है जो मूल रूप से उनके राष्ट्रीय दृष्टिकोण में भी एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत है।
और शायद यही कारण है कि मुखर्जी ने महसूस किया कि उन्हें राष्ट्रीय भाषण में विचारों में गहराती खाई को पाटने के लिए आगे आना होगा और संवाद के लिए आग्रह करना होगा।
द इकोनॉमिस्ट ने अपने हालिया स्तंभों में से एक में प्यू ग्लोबल सर्वेक्षण का जिक्र करते हुए कहा, “यह शायद अप्रियकर हो सकता है, भारत की राजनीतिक व्यवस्था को शायद बड़ी उपलब्धियों के साथ श्रेय दिया जा सके।” सर्वेक्षण में पाया गया कि किसी अन्य लोकतांत्रिक देशों के नागरिकों के मुकाबले भारतीय लोग लोकतंत्र को लेकर कम उत्साहित हैं और मजबूत नेता चाहने या सैन्य शासन की ओर ज्यादा आकर्षित हैं।
लोकतंत्र ने एक विशाल और लगभग असंभव रूप से विविधता वाले देश को एकजुट रखने में मदद की है। इसने सेना को सत्ता से बाहर रखा है और इसने नागरिक स्वतंत्रता को बरकरार रखा है। भारत अपनी लचीली व्यवस्था के कारण ही कई पड़ोसियों के लिए ईष्र्या का विषय बना हुआ है।
–आईएएनएस
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