वीरेंद्र यादव,
राजद और कांग्रेस के समर्थन से चल रही नीतीश कुमार की जदयू सरकार की पहली वर्षगांठ आगामी 20 नवंबर को होगी। इस मौके पर बड़ा आयोजन किया जाएगा और एक साल की उपलब्धियों पर फोकस किय जाएगा। पिछले दस वर्षों की परंपरा 11वें साल में भी जारी रहेगी और नीतीश कुमार जदयू की 11 वर्षों की उपलब्धियों का लेखाजोखा यानी रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत करेंगे।
पिछले 11 वर्षों में सरकार के सहयोगी बदले, मुख्यमंत्री बदले, लेकिन सरकार जदयू की ही रही। नीतीश की जगह जीतनराम मांझी सीएम बने। भाजपा की जगह राजद और कांग्रेस सरकार के सहयोगी बने, लेकिन जदयू की सरकार निर्बाध रूप से चलती रही। रिपोर्ट कार्ड जारी करने का सिलसिला भी चलता रहा। 11वें रिपोर्ट कार्ड के लिए नीतीश कुमार की अध्यक्षता में आज सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों की बैठक हुई। इसमें रिपोर्ट कार्ड छापने के लिए दो प्रिंटिंग प्रेसों के नाम पर सहमति बन गयी है।
सात निश्चय पर फोकस
रिपार्ट कार्ड के कंटेंट को लेकर मुख्यमंत्री ने कहा कि सात निश्चय को सर्वाधिक फोकस किया जाए। नीतीश अपनी तीसरी पारी में ‘नीतीश निश्चय’ को ब्रांड बनाने की कोशिश कर रहे हैं। सचिवालय से पंचायत स्तर पर ‘नीतीश राग’ का गान चल रहा है। सात निश्चय में विषयों को इस ढंग से जोड़ा गया कि सभी विभाग किसी न किसी निश्चय से संबद्ध हो गए हैं। इसके साथ नली, गली से लेकर पानी तक को इससे जोड़ दिया गया है। यानी हर कदम पर नीतीश निश्चय। सीएम ने अधिकारियों को इस बात की छूट दे रखी है कि इससे इतर भी कोई विषय जरूरी हो तो रिपोर्ट कार्ड में जोड़ा जाए।
11वें वर्ष में बदल गया बोल
अपने दो कार्यकालों में नीतीश कुमार ने सुशासन और न्याय के साथ विकास का नारा दिया था। तीसरे कार्यकाल में ये दोनों नारे हाशिए पर धकेल दिये गए। आप नया नारा ‘सात निश्चय’ का आया है। इसे नारा नहीं, संकल्प का नाम दिया गया है। अब देखना है कि रिपोर्ट में सरकार की कौन सी तस्वीर नजर आती है, लेकिन इतना तय है कि सहयोगी बदलने के साथ नीतीश कुमार की कार्यशैली में बदलाव भी नजर आ रहा है।
और मैं नहीं झेल पाया फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आंचल’
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करीब 10 दिन पहले हमने अपनी एक दोस्त के घर से एक पुस्तक मांग कर लाया था- मैला आंचल। चर्चित उपन्यास। शुरु के एक-दो दिनों में एक-दो चैप्टर पढ़ा। लेकिन उसकी विषय वस्तु को ज्यादा आत्मसात नहीं कर पाया और न ज्यादा पढ़ने की इच्छा हुई। और आखिरकार बिना पढ़े ही आज पुस्तक को वापस कर आया।
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पुस्तक वापस कर लौटने के क्रम में हमारे मन में यही विचार उठता रहा कि आखिर हम इस पुस्तक को पढ़ने का धैर्य क्यों नहीं रख पाए? अपनी आचंलिकता के लिए विख्यात ‘मैला आंचल’ का शुरुआती पात्र, घटनाक्रम और बिंब को लेकर मेरे मन में कोई उत्साह नहीं दिखा और न घटनाक्रम की गहराई में जाने की रुचि रही। इसको लेकर हमने दो-तीन बातों पर गौर किया। पहला यह कि उपन्यास पात्र, घटनाक्रम या सामाजिक बनावट नाम, जगह या संरचना के आधार पर उससे भिन्न नहीं हैं, जिसे हमने देखा है और जिसके बीच पला-पढ़ा है। पूर्णिया की सामाजिक बुनावट और औरंगाबाद की सामाजिक बुनावट में वर्षों बाद भी कोई अंतर नहीं आया है। पात्र, घटना, जगह या परिस्थिति अलग-अगल हो सकती है, लेकिन परिणाम, परिणति या प्रतिफल सब एक ही- जो पूर्णिया का, वहीं औरंगाबाद का।
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दूसरी वजह शैली भी हो सकती है। ‘मैला आंचल’ में घटना को विस्तार दिया गया है, संवाद को लंबा खींचा गया है और संवाद में स्थानीयता ज्यादा हावी हो गयी है। जिसमें हम उलझना नहीं चाहते थे। इस कारण भी उपन्यास के साथ खुद को नहीं जोड़ पाए। जब हम अपनी ‘चुनाव यात्रा’ के नाम से डायरी लिख रहे थे तो घटना का विस्तार, विषय वस्तु का फैलाव और कहानी का लंबा खींचना मजबूरी बन जा रही थी। संभव है हर लेखक को इन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता हो।
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‘मैला आंचल’ हम नहीं पढ़ पाए, इसका अफसोस जरूर रहेगा। लेकिन संतोष इस बात का है कि हमने पढ़ने की कोशिश की और समझा कि पूर्णिया हो या औरंगाबाद, हर जगह सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संरचना एक ही होती है, बस जगह और पात्र बदल जाते हैं।
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