डॉ. वेदप्रताप वैदिक,
इस साल भारत और पाकिस्तान शांघाई सहयोग संगठन के बाकायदा सदस्य बन गए हैं। इस संगठन में दोनों की सदस्यता एक साथ हुई, यह अपने आप में विशेष बात है। अब सवाल है कि ये दोनों राष्ट्र क्या उस संगठन में भी एक-दूसरे के साथ वैसा ही बर्ताव करेंगे, जैसा कि वे दक्षेस (सार्क) में करते रहे हैं ? यदि हां तो उस संगठन का कोई खास नुकसान तो होगा नहीं, क्योंकि जैसे दक्षेस के राष्ट्रों में ये दोनों सबसे बड़े हैं, वैसे शांघाई-राष्ट्रों में ये दोनों चीन और रुस से छोटे हैं। यों भी यह संगठन चीन और रुस ने मिलकर बनाया है।
चीन और रुस ने वास्तव में भारत और पाक को इस संगठन का सदस्य बनाकर एक खतरा मोल लिया है। शायद एक सिरदर्द पाल लिया है। यह कैसे संभव है कि भारत और पाकिस्तान किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक साथ बैठें और एक दूसरे के खिलाफ न बोलें ? संयुक्तराष्ट्र संघ में तो हम यह करते ही रहे हैं अभी सिंगापुर में चलनेवाले परिसंवाद में दोनों देशों की खटपट हो गई थी।अगर ऐसा शांघाई सहयोग संगठन में भी होता रहा तो भारत का नुकसान होने की संभावना ज्यादा है, क्योंकि चीन से भारत की पुरानी उलझने हैं और पाकिस्तान के साथ तो रिश्ते दुश्मनी की हद तक पहुंचे हुए हैं। भारत को ये दोनों देश घेरेंगे। उसे हिलने-डुलने की भी दिक्कत हो सकती है।
जहां तक रुस का सवाल है, वह भी आजकल पाकिस्तान की तरफ मुखातिब है। अभी रुस-पाक सेनाओं ने संयुक्त अभ्यास भी किया था। इधर रुस तलिबान के प्रति थोड़ा नरम पड़ा है और उसका मुख्य निशाना दाएश (आईएसआईएस) है। इसीलिए भारत रुस से पहली-सी मुहब्बत नहीं मांग सकता। और फिर भारत क्या पाकिस्तान सेना के साथ संयुक्त सैन्य-अभ्यास करेगा, जैसी कि शांघाई-राष्ट्रों की परंपरा है ? यदि दोनों देश ऐसा कर सकें तो क्या कहने ? नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में पाकिस्तान का नाम लिए बिना आतंकवाद और चीन का नाम लिए बिना ‘ओबोर’ के द्वारा भारतीय संप्रभुता के उल्लंघन की बात कही। बहुत अच्छा किया। यह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को पेइचिंग में हुए ‘ओबोर’ सम्मेलन में जाकर कहना था।
अब भूल-सुधार हो गया लेकिन शांघाई सहयोग संगठन से बहुत ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इसके छह सदस्यों में चीन और रुस के अलावा मध्य एशिया के वे चार मुस्लिम राष्ट्र हैं, जो 20 साल पहले तक रुस के प्रांत रहे हैं। इस संगठन की अधिकारिक भाषाएं भी रुसी और चीनी हैं, जो कि मोदी और नवाज के लिए जादू-टोने की तरह हैं। हमारे दोनों प्रधानमंत्रियों की अंग्रेजी भी माशाअल्लाह है। देखें, अनुवादकों के जरिए हम राष्ट्रहितों के मूल का कितना अनुवाद कर पाते हैं ? बेहतर तो यह होता, जैसा कि मैं पिछले कई दशकों से कहता आ रहा हूं कि हम दक्षेस के आठ राष्ट्रों की बजाय आर्यावर्त्त के 16 राष्ट्रों का संगठन बनाएं, जिसमें मध्य एशिया के पाचों गणतंत्रों के अलावा बर्मा, ईरान और मोरिशस को भी शामिल करें।
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