नई दिल्ली/बीजिंग: चीन 2001 में तिब्बत में अपनी सीमा को अंतिम रूप देकर भारत के साथ सीमा विवाद को निपटाना चाहा था, मगर तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। यह खुलासा हार्पर कॉलिन्स द्वारा हाल में प्रकाशित एक किताब में किया गया है। लंदन की एक प्रमुख लॉ फर्म जायवाला एंड कंपनी के भारतीय मूल के संस्थापक और वरिष्ठ साझेदार सरोश जायवाला ने अपने हालिया संस्मरण ‘ऑनर बाउंड- एडवेंचर्स ऑफ ऐन इंडियन लायर इन इंग्लिश कोर्ट्स’ में इस बात का खुलासा किया है कि चीन 2001 में भारत के साथ अपने सीमा विवाद को निपटाना चाहता था, लेकिन तत्कालीन भारत सरकार ने उनके माध्यम से दिए गए गोपनीय प्रस्ताव का जवाब नहीं दिया।
जायवाला के संस्मरण के अनुसार, ब्रिटेन में तत्कालीन चीनी राजदूत मा जेन गैंग ने उन्हें दोनों देशों के सर्वोच्च राजनीतिक स्तर पर व्यावहारिक समाधान खोजने के लिए ‘सेकंड-चैनल’ का सुझाव दिया था कि दोनों देशों के राजनीतिक नेताओं के बीच जमीनी स्तर पर सीमा विवाद को सुलझाने के लिए गोपनीय बैठकें की जाएं।
किताब में कहा गया है, मैंने राजदूत के इनपुट और अनुमोदन के साथ जो नोट तैयार किया था, उसे मेनका गांधी को दिया, जिन्होंने मुझे पुष्टि की कि उन्होंने इसे जसवंत सिंह (तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री) के पास भेज दिया है।
उन्होंने खुलासा किया, जब मैं कुछ महीने बाद लंदन के वाशिंगटन होटल में एक कार्यक्रम के दौरान जसवंत सिंह से मिला, तो उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैंने आपका वह नोट अपने विभाग को विचार करने के लिए दिया है’। लेकिन कुछ नहीं हुआ।
जायवाला ने कहा, उन दिनों चीन का ध्यान आर्थिक विकास पर था न कि सैन्य ताकत पर।
उन्होंने कहा, मुझे विश्वास था कि चीन वास्तव में भारत के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के लिए उत्सुक था।
जायवाला ने किताब में लिखा है कि राजदूत मा ने उनसे कहा था, “चीन चाहता है कि तिब्बत की असली सीमा भारत के साथ उसकी सीमा हो। ब्रिटिश राज द्वारा तिब्बत और भारत के बीच खीची गई सीमा रेखा को सही सीमा नहीं माना जा सकता है। हम भारतीय भूभाग नहीं चाहते हैं, लेकिन जो तिब्बत का हिस्सा है, वह हमारे पास आ जाए।”
वकील ने अपनी किताब में कहा है, “मैंने चीनी राजदूत से कहा था कि भारत के लिए किसी हिस्से को अलग करना भारत के लोगों को स्वीकार्य नहीं होगा। मैंने उन्हें उस समय उस तथ्य को ध्यान दिलाया था कि (हेनरी) मैकमोहन (भारत में ब्रिटिश विदेश मंत्री) द्वारा खीची गई सीमा रेखा पर तिब्बत और भारत सहमत थे। तिब्बत की अपनी एक सरकार थी। इसलिए तिब्बत और भारत द्वारा सीमा स्थान को लेकर एक कानूनी और बाध्यकारी स्वीकारोक्ति रही थी। लिहाजा यह चीन के लिए भी बाध्यकारी होगा। उनके साथ मेरी बातचीत में राजदूत ने स्वीकार किया था कि इन सारे बिंदुओं पर चर्चा हो सकती है।”
वह आगे लिखते हैं, “पूर्व चीनी प्रधानमंत्री झाउ एनलाई द्वारा हस्ताक्षरित एक 1959 के नोट के अनुसार, चीन एक वास्तवित नियंत्रण रेखा को मान्यता देता है, जो भारत के साथ उसकी सीमा के पूर्वी हिससे में मैकमोहन रेखा के बिल्कुल करीब है।”
किताब में कहा गया है, “चीन और भारत के बीच एक गोपनीय बैकचैनल बनाने के लिए ब्रिटेन में चीनी राजदूत के साथ काम करते हुए मैं इस सीमा विवाद से अत्यंत परिचित हो गया। दोनों पक्षों को इस मामले को द्विपक्षीय बातचीत के जरिए सुलझाना चाहिए, जिसमें भारत को किसी अपने हिस्से को त्यागने की आवश्यकता नहीं है। यह संभव होगा।”
–आईएएनएस
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