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IPS की नकेल कसने वाले दिल्ली पुलिस के दबंग कमिश्नर, कमिश्नर काबिल हो तो ही डरते हैं IPS

इंद्र वशिष्ठ
पुलिस कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव द्वारका डीसीपी के तीन टच स्क्रीन कम्प्यूटर ले जाने वाले डीसीपी के खिलाफ कार्रवाई करने कि हिम्मत दिखाते हैं या उसे बचाते हैंं। यह भी जल्द सामने आ ही जाएगा।
हालांकि पुलिस कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने कहा है कि वह इस मामले में जानकारी हासिल करेंगे यानी जांच कराएंगे।
द्वारका जिले से कार,18 पुलिस वालों के अलावा टच स्क्रीन वाले तीन महंगे कम्प्यूटर भी अपने साथ डीसीपी एंटो अल्फोंस उत्तरी जिले में ले गए। कम्प्यूटर लेकर जाने का रिकार्ड में जिक्र नहीं किया गया। इस तरह से यह मामला सरकारी अफसर द्वारा अमानत मेंं ख्यानत का है। अगर अजय राज शर्मा ,युद्ववीर सिंह डडवाल और कृष्ण कांत पॉल जैसे कमिश्नर के समय मेंं ऐसा होता तो वह उस डीसीपी के खिलाफ तुरंत कार्रवाई कर देते।
वैसे कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने तो दानिप्स सेवा के पूर्वी जिले के उस एडशिनल डीसीपी संजय कुमार सहरावत तक के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं की जिसके खिलाफ जाली जन्मप्रमाण से नौकरी हासिल करने के आरोप में सीबीआई ने केस दर्ज किया है। लोदी कालोनी थाने में हिरासत में मौत के संगीन मामले में भी एस एच ओ को नहीं हटाया गया।
दमदार ,काबिल कमिश्नर अजय राज़ शर्मा-  
लेकिन दूसरी ओर दिल्ली पुलिस में अजय राज शर्मा जैसे कमिश्नर भी रहे हैं जिन्होंने दो डीसीपी तक को जिले से तुरन्त हटवाने की हिम्मत दिखाई थी। दिल्ली पुलिस के इतिहास मेंं शायद ही ऐसी दूसरी कोई मिसाल हो जिसमें भ्रष्टाचार और पेशेवर लापरवाही/असंवेदनशीलता पर दो डीसीपी को जिले से हटाया गया। आईपीएस अफसर द्वारा तबादले के साथ ही अपने निजी स्टाफ यानी चहेते पुलिस कर्मियों को भी साथ ले जाने पर भी अजय राज शर्मा ने अंकुश लगाया।
वर्ष 1999 से 2002 तक दिल्ली पुलिस में अजय राज़ शर्मा जैसा दबंग पुलिस कमिश्नर भी रहा। जो आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ भी न केवल सख्त कार्रवाई करते थे बल्कि मीडिया में भी खुल कर बोलते थे। आईपीएस के 1966 बैच के उत्तर प्रदेश काडर के अजय राज़ शर्मा के कर्तव्य पालन के  उदहारणों से उनकी पेशेवर काबिलियत और दबंगता का अंदाजा लगाया जा सकता है। अजय राज़ शर्मा दिल्ली पुलिस के बाद सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक भी रहे ।
पिस्तौल उपहार मेंं लेने वाले डीसीपी सत्येंद्र गर्ग को हटाया –
उत्तर पश्चिम जिला के तत्कालीन डीसीपी सत्येंद्र गर्ग द्वारा माडल टाऊन के बिजनेसमैन सुशील गोयल की पत्नी से लाखों रुपए मूल्य की विदेशी पिस्तौल उपहार में लेने का भ्रष्टाचार का अनोखा मामला इस पत्रकार द्वारा 1999 में उजागर किया गया।  बिना किसी फायदे के भला कोई महंगी पिस्तौल किसी को देता  है ?
तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अजय राज़ शर्मा ने तुरंत डीसीपी सत्येंद्र गर्ग को जिला पुलिस उपायुक्त के पद से हटवा दिया। इस मामले के कारण ही कई वर्षों तक सत्येंद्र गर्ग को पदोन्नति और महत्वपूर्ण पद नहीं दिया गया।
साल 2012 मे निर्भया कांड के दौरान ट्रैफिक पुलिस की लापरवाही उजागर हुई तो ट्रैफिक पुलिस के तत्कालीन मुखिया सत्येंद्र गर्ग के खिलाफ भी गृह मंत्रालय द्वारा विभागीय जांच की गई। इस जांच के कारण गर्ग को पदोन्नति भी काफी देर से मिली। हाल मेंं वह गृह मंत्रालय मेंं डेपुटेशन पूरी कर अपने काडर मेंं वापस आ गए हैं।
डीसीपी मुक्तेश चंद्र को हटाया-
मध्य जिला के तत्कालीन डीसीपी मुक्तेश चंद्र द्वारा बलात्कार पीड़िता विदेशी युवतियों को मीडिया के सामने ही पेश करने पर इस पत्रकार ने ही सवाल उठाया था। जिससे मुक्तेश चंद्र की पेशेवर काबिलियत और संवेदनशीलता पर सवालिया निशान लग गया था।
तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अजय राज़ शर्मा ने इस मामले में भी मुक्तेश चंद्र को जिला पुलिस उपायुक्त के पद से हटा दिया। यही नहीं संसद को दिए जवाब में भी खुल कर यह जानकारी दी कि इस मामले में डीसीपी को फटकार लगाई गई है और जिला पुलिस उपायुक्त के पद से हटा दिया गया है।
सीबीआई ने आईपीएस जे के शर्मा के यहां छापे मारी की थी उस समय अजय राज़ शर्मा ने मीडिया में खुल कर कहा कि आज़ का दिन पुलिस के लिए काला दिन है।
आतंकी हमले के दौरान भी बौखलाए नहीं –
 झपटमारी/ लूट की वारदात होने पर ही जब आईपीएस अफसर वारदात दर्ज न करने या खबर दबाने की नीयत से मीडिया का सामना करने से घबराते या बौखलाते हैंं। पत्रकार का फोन तक नहीं उठाते है। अजय राज ऐसे पुलिस कमिश्नर थे जो आतंकी हमले के दौरान भी बिना विचलित हुए पत्रकार से बात करने का दम रखते थे।
संसद पर आतंकवादी हमला होने की सूचना मिलते ही इस पत्रकार ने पुलिस कमिश्नर अजय राज शर्मा को मोबाइल पर फोन किया। फोन मिलाते समय ही यह ख्याल आया था कि ऐसे समय मेंं जब संसद पर हमला हो रहा है कमिश्नर फोन बिल्कल नहीं उठाएंगे और अगर उठा भी लिया तो झल्ला कर नाराजगी जता कर कह सकते हैं कि इस समय संसद पर हो रहे हमले पर पुलिस कार्रवाई का नेतृत्व करना उनकी प्राथमिकता है ना कि मीडिया से बात करना।
लेकिन अजय राज शर्मा ने तुरंत फोन रिसीव किया और बिल्कुल ही सहज शांत भाव से आतंकी हमले की पुष्टि की और बताया कि वह अभी संसद भवन जाने के लिए रास्ते मेंं ही हैं। आतंकी हमले जैसे संकट के समय भी इस तरह का व्यवहार ही पेशेवर काबिलियत दिखाता है।
लालकिले पर हमला भी अजय राज के समय मेंं ही हुआ। दोनों मामलों को पुलिस ने सुलझा भी लिया।
सिफारिश के बाद भी एसएचओ नहीं लगाया–
केशव पुरम थाना इलाके में टीवी के डिब्बे मेंं एक युवक की लाश मिली थी। हत्या का मामला दर्ज करने की बजाए पुलिस ने लावारिस के रुप मेंं शव का अंतिम संस्कार कर दिया। इस मामले को इस पत्रकार द्वारा उजागर किया गया। अजय राज शर्मा ने केशव पुरम एसएचओ प्रदीप कुमार और चौकी इंचार्ज राज सिंह को निलंबित कर दिया। इस मामले से साबित हुआ कि पुलिस अपराध कम दिखाने के लिए हत्या के मामले भी दर्ज नहीं करती । प्रदीप कुमार के एक जानकर ने काफी समय बाद इस पत्रकार को बताया कि दोबारा एसएचओ लगने के लिए प्रदीप कुमार ने  कमिश्नर अजय राज शर्मा को कई बार सिफारिश करवाई थी। लेकिन अजय राज ने उसे साफ कह दिया कि तुम्हें दोबारा लगाया तो सान्ध्य टाइम्स मेंं फिर खबर छप जाएगी।
पत्रकार को काबिल अफसर दोस्त, निकम्मे दुश्मन मानते है-
इससे पता चलता है कि कमिश्नर/आईपीएस की नीयत अगर सही है और वह गलत काम करने वाले अफसर को तैनात नहीं करना चाहता, तो वह मीडिया का भय दिखा कर भी ईमानदारी से अपने कर्तव्य पालन कर सकता है।
आईपीएस ईमानदार हो, तो ईमानदारी नजर आना जरूरी है।
कुछ तो शर्म करो –
आजकल तो हालात यह है कि खबर के आधार पर अफसर के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाए पोल खोलने वाले पत्रकार को ही अफसर द्वारा दुश्मन की तरह देखा/ समझा जाता है।
 कमिश्नर/डीसीपी तक फोन/व्हाट्सएप  पर उसे ब्लाक कर देते हैं। जबकि आईपीएस अगर “ईमानदार”  है या मान ले कि बेईमान भी है तो उसे कम से कम उस मामले में तो कार्रवाई करके दिखाना ही चाहिए जिसमें साक्ष्य चीख चीख कर अफसरों या मातहतों के दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार या नियम तोड़ने का खुलासा करते हैं। कुछ तो लाज उसे आईपीएस बनने की रखनी चाहिए। जिससे लोगों में कुछ तो भरोसा जगे कि आईपीएस को शिकायत करने पर कार्रवाई होती है। इतना भी न करने वाले अफसर ही आईपीएस जैसी सेवा को कलंकित करते हैं। ऐसे अफसरों के कारण ही पुलिस मेंं भ्रष्टाचार बढ़ता है और पुलिस निरंकुश होती है।
जो आईपीएस पेशेवर काबिलियत वाले होते हैं।  वह तो मीडिया द्वारा उजागर मामलों को सकरात्मक रुप मेंं ले कर उस पर कार्रवाई जरुर करते हैंं। पुलिस मेंं व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए वह मीडिया के आभारी भी होते हैंं।

पत्रकारों से बदसलूकी बर्दाश्त नहीं-

दैनिक जागरण के तत्कालीन पत्रकार अरविंद शर्मा और आलोक वर्मा ने आरोप लगाया कि स्पेशल सेल के एसीपी राजबीर सिंह उनके साथ बदतमीजी की जान से मारने की धमकी दी है।  पत्रकारों ने इस मामले की शिकायत अजय राज शर्मा से की। अजय राज शर्मा ने कहा कि अफसर का ऐसा व्यवहार बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उन्होंने तुरंत मामले की सतर्कता विभाग से जांच के आदेश दे दिए। लेकिन अरविंद शर्मा और आलोक वर्मा जांच मेंं शामिल ही नहीं हुए। बाद मेंं पता चला कि स्पेशल सेल के तत्कालीन डीसीपी अशोक चांद और एसीपी राजबीर ने होटल मेंं पत्रकारों को दावत देकर सब “ठीक” कर लिया।

कृष्ण का चक्र अफसरों पर भी चला-
अजय राज शर्मा की ही तरह काबिल आईपीएस अफसरों मेंं शुमार कमिश्नर कृष्ण कांत पॉल के समय भी अफसर निरंकुश नहीं थे। कृष्ण कांत पॉल आतंकियों/अपराधियों को पकड़ने के दौरान होने वाले खर्च के लिए सोर्स मनी खुल कर मातहतों को देते थे। जबकि दूसरी ओर ऐसे अफसर भी होते हैं जो सोर्स मनी खुद खा जाते  हैं।
हालांकि वह गुस्सा भी जल्दी हो जाते थे। कमिश्नर क‌ष्णकांत पाल के समय एक इंस्पेक्टर देवेंद्र मनचंदा ने आत्महत्या कर ली थी।  देवेंद्र के परिवार ने इसके लिए पुलिस कमिश्नर को जिम्मेदार ठहराया था।
तत्कालीन पुलिस कमिश्नर कृष्ण कांत पाल ने एक बार आर्थिक अपराध शाखा के डीसीपी दिनेश भट्ट से दुर्व्यवहार किया था लेकिन दिनेश भट्ट ने पाल को पलट कर करारा जवाब दिया।
 कृष्ण कांत पाल पर संयुक्त पुलिस आयुक्त के पद पर रहते हुए एक इंस्पेक्टर ने भी बदतमीजी का आरोप लगाया था। इंस्पेक्टर ने तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अजय राज शर्मा से शिकायत की थी। इस पर अजय राज शर्मा ने इंस्पेक्टर से माफी मांग कर बड़प्पन दिखाया।
डीसीपी सत्येंंद्र गर्ग द्वारा बिजनेसमैन की पत्नी से महंगी विदेश पिस्तौल लेने के मामले की जांच की थी अपराध शाखा के तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त कृष्ण कांत पॉल ने अपनी जांच में इसे भ्रष्टाचार बताया था।
शिवानी भटनागर हत्याकांड में हरियाणा के आईपीएस आर के शर्मा से पूछताछ के दौरान कृष्ण कांत पॉल ने कोई नरमी नहीं बरती। हालांकि आर के शर्मा ने उन पर रौब दिखाने की कोशिश की थी।
कृष्ण कांत पॉल बाद मेंं यूपीएससी के सदस्य और दो राज्यों के राज्यपाल भी रहे।
पत्रकार को फंसाया-
कमिश्नर अजय राज शर्मा और कृष्ण कांत पॉल को कश्मीर टाइम्स के पत्रकार इफ्तिखार गिलानी को देशद्रोह के  झूठे मामले मेंं गिरफ्तार करने के  लिए भी याद रखा जाएगा। भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में स्पेशल सेल ने इफ्तिखार को गिरफ्तार किया था। अदालत मेंं सेना के वरिष्ठ अफसर ने पुलिस की पोल खोल दी। सेना के अफसर ने कहा कि गिलानी से बरामद दस्तावेज गोपनीय नहीं है। पुलिस की पोल खुली तो मुकदमा वापस लिया गया। लेकिन बेकसूर गिलानी को सात महीने जेल में सड़ना पड़ा। गिलानी की गिरफ्तारी के समय अजय राज कमिश्नर और  कृष्ण कांत पॉल स्पेशल कमिश्नर थे।
वीएन सिंह, भीम सेन बस्सी की ईमानदार कोशिश-
कमिश्नर और आईपीएस अफसर खुद को सफल अफसर दिखाने के लिए आंकड़ों की बाजीगरी से अपराध कम होने का दावा करते हैं। इसलिए अपराध को दर्ज न करने या हल्की धारा मेंं दर्ज किया जाने की परंपरा है। अपराध दर्ज न करने के कारण ही अपराध बढ़ रहे  हैंं। और अपराधी बेखौफ शंश हो गए हैं।
अपराध और अपराधियों पर अंकुश का केवल एकमात्र रास्ता अपराध के सभी मामलों को दर्ज किया जाना ही है। अभी हालत यह है कि मान लो झपटमारी,चोरी,लूट की यदि सौ वारदात होती हैं तो उसमें से मुश्किल से दस ही दर्ज पाई जाती है। पुलिस अपराध दर्ज न करके अपराधियों की मदद करने का अपराध कर रही हैं। पुलिस मेंं भ्रष्टाचार का  मुख्य कारण यह भी है।
 पिछले तीस साल मेंं  इस परंपरा को तोड़ने का साहस और ईमानदार कोशिश सिर्फ दो पुलिस कमिश्नर ने ही दिखाई है। सबसे पहली कोशिश कमिश्नर वी एन सिंह ने की थी। लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली।
इसके बाद पुलिस कमिश्नर भीम सेन बस्सी ने अपराध को सही दर्ज करने की कोशिश की। भीम सेन बस्सी को इस मामले मेंं काफी सफलता मिली इसका पता उस अवधि के दौरान दर्ज किए गए अपराध के आंकड़ों से साफ चलता है।
जुलाई 2013 से फरवरी 2016 तक बस्सी पुलिस कमिश्नर रहे। साल 2012 में आईपीसी के तहत दर्ज मामलों की संख्या 54287 थी। साल 2013 में 80184 ,साल 2014 में 155654,साल 2015 में 191377 और साल 2016 में 209519 मामले दर्ज हुए। भीम सेन बस्सी के जाने के बाद.अपराध. सही दर्ज न करने की परंपरा फिर शुरू हो गई।
भीम सेन बस्सी सेवानिवृत्ति के बाद यूपीएससी के सदस्य बनाए गए।
युद्धवीर का युद्ध आईपीएस के भी विरुद्ध-
पुलिस कमिश्नर युद्धवीर सिंह डडवाल ने भी पूरी दबंगता से कार्य किया।आईपीएस अफसरों द्वारा पुलिसकर्मियों, रसोईए और कार आदि संसाधनों के दुरुपयोग को रोकने की उन्होंने ही कोशिश की। आईपीएस अफसर जैसे हाल ही मेंं डीसीपी एंटो अल्फोंस अपने साथ 18 पुलिसकर्मियों को भी ले गया। इस परंपरा को युद्ववीर सिंह डडवाल ने बंद कर दिया था।
कॉमन वेल्थ गेम्स में करोड़ों रुपए के सुरक्षा संबंधी उपकरण कमिश्नर डडवाल और संयुक्त आयुक्त कर्नल सिंह आदि की कमेटी ने खरीदे थे। पुलिस की खरीद पर किसी ने जरा भी उंगली नहीं उठाई।
किसी बेकसूर को झूठे मामलों में फंसाने वाले पुलिसकर्मी को इंस्पेक्टर से सब-इंस्पेक्टर बनाने जैसी सख्त कार्रवाई उनके द्वारा की जाती थी।
माडल जेसिका लाल की हत्या से पहले बीना रमानी के बॉर में मौजूद रहने का खामियाजा तत्कालीन संयुक्त आयुक्त युद्धवीर डडवाल को तबादले के रुप मेंं भुगतना पड़ा था। वैसे बताया जाता है कि डडवाल ने वहां पी शराब का खुद ही क्रेडिट कार्ड से भुगतान किया था।
 युद्धवीर सिंह डडवाल को सेवानिवृत्त के बाद 2016 मेंं अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल का सलाहकार नियुक्त किया गया लेकिन उन्होंने एक हफ्ते में ही पद से इस्तीफा दे दिया।
 आलोक वर्मा ने इतिहास रचा  –
सीबीआई निदेशक के पद से राजनैतिक कारणों से हटाए गए विवादित आलोक कुमार वर्मा दिल्ली पुलिस आयुक्त के पद पर रहते एक ऐतिहासिक काम कर गए। आलोक वर्मा 28500 सिपाही और हवलदारों को पदोन्नत करके ऐसा इतिहास रच गए कि पुलिस हमेशा याद रखेगी।
विडंबना है कि पुलिस मेंं मातहतों का कल्याण कर गए आलोक वर्मा को अपनी पेंशन के लिए कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है।
सीबीआई निदेशक रहते आलोक वर्मा और उनके मातहत स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना ने एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप के कारण देश भर मेंं सुर्खियों मेंं रहे। आलोक वर्मा ने प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले राकेश अस्थाना के खिलाफ मामला दर्ज कर दिया था। सरकार को यह भी अंदेशा था कि आलोक वर्मा राफेल मामले मेंं सरकार के खिलाफ मामला दर्ज कर सकते हैंं। जिसके बाद सरकार ने आधी रात को आलोक वर्मा को हटा कर नागेश्वर राव को बिठा दिया था। लेकिन आलोक वर्मा ने अदालत के आदेश से अपनी कुर्सी वापस पा ली। इसके बाद सरकार ने आलोक वर्मा का तबादला कर दिया। आलोक वर्मा ने उस आदेश को गलत बताया और इस्तीफा दे दिया।
अब तक के सबसे नाकारा कमिश्नर साबित हुए अमूल्य पटनायक आलोक वर्मा की कृपा से ही पुलिस कमिश्नर बने थे।
ना काहू से दोस्ती ना काहू से दुश्मनी –
युद्ववीर सिंह डडवाल और आलोक वर्मा पत्रकारों के दोस्त नहीं रहे तो दुश्मन भी नहीं थे। जबकि कमिश्नर या अन्य आईपीएस अपने चहेते पत्रकारों का गुट बना लेते हैं।
पत्रकारों के लिए अजय राज शर्मा और भीम सेन बस्सी सबसे ज्यादा और आसानी से उपलब्ध रहते थे।
निखिल कुमार- फर्जी एनकाउंटर,फर्जी आतंकी –
कमिश्नर निखिल कुमार का भी आईपीएस अफसरों मेंं दबदबा रहा। उनके कार्यकाल में तत्कालीन डीसीपी दीपक मिश्रा की टीम ने एक सिख को गिरफ्तार कर बम विस्फोटों के 5 मामले सुलझाने का दावा किया। इस मामले मेंं 7 पुलिस कर्मियों को बारी से पहले तरक्की दी गई।
लेकिन इसके कुछ दिन बाद राजस्थान पुलिस द्वारा धमाकों में शामिल असली आतंकवादियों को पकड़ने का मामला इस पत्रकार ने उजागर कर दिया। इस मामले के कारण उनकी काफी किरकिरी हुई।
 इस पत्रकार की खबरों पर निखिल कुमार ने ओखला के एसएचओ राजेंद्र सिंह और प्रीत विहार के एडशिनल एसएचओ राज कुमार भारद्वाज को हटाया भी  था। लेकिन निखिल कुमार ने कभी भी दुश्मनी या नाराजगी का भाव नहीं दिखाया।
निखिल कुमार ने एक अन्य मामले मेंं बदरपुर थाने के एसएचओ को हटा दिया। एसएचओ ने चौबीस घंटे में वापस उसी थाने में लग कर कमिश्नर को अपनी ताकत दिखा दी।
पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार की भूमिका–
 कनाट प्लेस मेंं 31 मार्च 1997 को दिनदहाड़े दो व्यापारियों की एसीपी सतबीर राठी की टीम ने फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी।
इस पत्रकार ने कमिश्नर निखिल कुमार से पूछा कि बेकसूर लोगों की हत्या करने वाली पुलिस टीम के खिलाफ आप क्या कार्रवाई कर रहे हैं ? यह भी कहा कि आप पुलिस वालों के खिलाफ एक्शन लेकर मीडिया को बता दें। जिससे लोगों को 2 बेकसूर व्यवसायियों की हत्या की इस खबर के साथ यह भी पता चल जाए कि दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी गई हैं।
लेकिन निखिल कुमार शायद इस मामले की गंभीरता/ संवेदनशीलता और इसके परिणामों को समझ नहीं पाए या अपने राजनैतिक परिवार के रुतबे के कारण निश्चिंत थे। इसलिए उन्होंने उस समय कोई कार्रवाई नहीं की।
निखिल कुमार ने प्रेस कांफ्रेंस के बाद वहां से जाते हुए कहा कि कल मिलते हैं मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया कल आप मिलोगे  (मतलब पद पर)?
वहीं हुआ अगले दिन निखिल कुमार को पुलिस आयुक्त के पद से हटा दिया गया।
बहुत बेआबरु होकर कूचे से निकले-
पुलिस कमिश्नर के पद से तबादला या सेवानिवृत्त होने वाले  अफसर को समारोह पूर्वक विदाई दी जाती हैं। उस अफसर की कार को फूलों वाली रस्सी से वरिष्ठ अफसरों द्वारा खींचा जाता हैं। लेकिन निखिल कुमार के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। निखिल कुमार ख़ुद अपनी कार चला कर पुलिस मुख्यालय से विदा हुए।
उप-राज्यपाल ने पुलिस वालों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कराया मामले की तफ्तीश सीबीआई को सौंपी गई।
पुलिस कमिश्नर ने माफ़ी तक नहीं मांगी–
जबकि यह कार्रवाई तो निखिल कुमार को पहले ही दिन करनी चाहिए थी। पुलिस का मुखिया होने के नाते उन्होंने मृतकों के परिजनों से माफ़ी तक नहीं मांगी।
सामान्यत मातहत  पुलिस वालों की कोई गंभीर गलती पता चलते ही वरिष्ठ पुलिस अफसरों द्वारा उन्हें तुरंत निलंबित कर जांच शुरू करने की कार्रवाई की जाती हैं।
लेकिन पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार ने तो दो व्यवसायियों की हत्या जैसे गंभीर अपराध को  करने वाली पुलिस टीम के खिलाफ यह सामान्य और स्वाभाविक कार्रवाई/ प्रक्रिया  भी उसी समय नहीं की।
फर्जी एनकाउंटर मामले में उत्तराखंड की पहली महिला पुलिस महानिदेशक ने माफ़ी मांग कर बनाई इंसानियत की मिसाल —
ऋषिकेश में एक बेकसूर महिला की पुलिस ने गोलियां मार कर हत्या कर दी और उसे आतंकवादी बता दिया था।
 उस समय उत्तराखंड की पहली महिला पुलिस महानिदेशक कंचन चौधरी भट्टाचार्य ने सच पता लगाया। पुलिस वालों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कराया और उनको जेल भेजा। इसके बाद कंचन चौधरी भट्टाचार्य मृतक महिला के घर गई और उसके परिजनों से पुलिस महकमे की ओर से माफ़ी मांंगी।
ईमानदार, काबिल अफसरों का अकाल-
आज के दौर के आईपीएस अफसरों से तुलना की जाए तो साफ़ पता चल जाएगा कि कमिश्नर और आईपीएस में पेशेवर काबिलियत में कितनी जबरदस्त गिरावट आई है। यह गिरावट ही अपराध और पुलिस में भ्रष्टाचार बढ़ने की मुख्य वजह है।
ईमानदारी की कसम तोड़ने वाले  को ईमानदार कैसे मान लें-
जो पुलिस अफसर लूट, झपटमारी, हत्या की कोशिश जैसे अपराध को ही सही दर्ज नहीं करते या हल्की धारा में दर्ज़ करते हैं। मातहतों और कार आदि संसाधनों का अपने निजी काम में इस्तेमाल करते हैं।
 उनको ईमानदार भला कैसे माना जा सकता है। अपराध को दर्ज़ न करके एक तरह से अपराधी की मदद करने वाले पुलिसवाले तो अपराधी से भी बड़े गुनाहगार है।
यह आईपीएस और मातहत पुलिस वाले तो भर्ती के समय बकायदा ईमानदारी से कर्तव्य पालन की कसम खाते हैं। इसके बाद कसम के विपरीत आचरण करना अक्षम्य अपराध है।
कमिश्नर, IPS दमदार हो तो लगे अपराध और भ्रष्टाचार पर अंकुश। –
पुलिस कमिश्नर और आईपीएस दमदार हो तो ही अपराधियों और भ्रष्ट पुलिस वालों पर अंकुश लगाया जा सकता है।
लेकिन जो आईपीएस मातहतों की करतूतों पर बोलने की हिम्मत नहीं दिखाते। वह भला दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ क्या कार्रवाई करेंगे?
इसके  सिर्फ दो ही कारण हो सकते है या तो अफसर में पेशेवर काबिलियत और ईमानदारी का अभाव है या वह  जानबूझकर आंखें बंद किए हुए हैं। यह दोनों ही सूरत में खतरनाक है और अफसरों की भूमिका पर सवालिया निशान लगाते हैं।
सबसे नाकाम,नाकारा कमिश्नर अमूल्य पटनायक-
पिछले कुछ सालों में पुलिस कमिश्नर स्तर पर भी पेशेवर काबिलियत में गिरावट देखने को मिली हैं।
दिल्ली मेंं इस साल फरवरी मेंं हुए दंगों मेंं तत्कालीन कमिश्नर अमूल्य पटनायक की भूमिका की आलोचना तो खुल कर पूर्व कमिश्नर अजय राज शर्मा,नीरज कुमार, टी आर कक्कड़ और बृजेश कुमार गुप्ता तक ने की थी।
 डीसीपी मधुर वर्मा ने इंस्पेक्टर को पीटा।
नई दिल्ली के तत्कालीन डीसीपी मधुर वर्मा ने आईपीएस पद को कलंकित किया। ट्रैफिक पुलिस के इंस्पेक्टर कर्मवीर मलिक की पिटाई कर मधुर वर्मा ने खाकी वर्दी को शर्मसार किया। इंस्पेक्टर ने पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक को लिखित शिकायत की। लेकिन अमूल्य पटनायक ने मधुर वर्मा को बचा लिया।
महिला डीसीपी को भी न्याय नहीं मिला-
उत्तर पश्चिम जिला की तत्कालीन महिला डीसीपी असलम खान के बारे में हवलदार देवेंद्र सिंह ने फेसबुक पर आपत्तिजनक भ्रष्टाचार संबंधी टिप्पणी की थी। पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक के दफ्तर में तैनात हवलदार देवेंद्र सिंह के बारे में डीसीपी ने खुद पुलिस कमिश्नर को शिकायत की लेकिन हवलदार के खिलाफ तुरंत कोई कार्रवाई नहीं की गई। इस पत्रकार द्वारा यह मामला उठाए जाने पर हवलदार को निलंबित किया गया।
पुलिस कमिश्नर की पसंदीदा न होने का खामियाजा असलम खान को भुगतना पड़ा। एक ओर पुलिस कमिश्नर और मंत्रियों के चहेते  तीन चार साल तक जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर आसीन रहते हैं वहीं असलम खान का करीब सवा साल में दिल्ली से बाहर तबादला कर दिया गया।
खाकी को ख़ाक में मिलाया आईपीएस ने-
भाजपा सांसद मनोज तिवारी द्वारा उत्तर पूर्वी जिले के तत्कालीन डीसीपी अतुल ठाकुर को गिरेबान से पकड़ने और अतिरिक्त उपायुक्त राजेंद्र प्रसाद मीणा को धमकाने का मामला मीडिया के माध्यम से पूरी दुनिया ने देखा।
लेकिन तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और उपरोक्त अफसरों ने मनोज तिवारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
डीसीपी ने कुत्तों के लिए कमरे बनवाए, सेवा में  मातहत लगाए-
दक्षिण पूर्व जिला के तत्कालीन डीसीपी रोमिल बानिया ने अपने दफ्तर में अपने कुत्तों के लिए कमरे बनवाए, कूलर लगवाए और कुत्तों  की सेवा में पुलिस कर्मियों को तैनात कर दिया।
तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने रोमिल बानिया के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने तो यह तक नहीं बताया कि कमरे सरकारी धन के दुरुपयोग से बनाए गए या भ्रष्ट तरीके से बनवाए गए।
सिपाही वफ़ा करके तन्हा रह गए कमिश्नर,आईपीएस दगा दे गए-
पिछले साल वकीलों ने पुलिस वालों को जम कर पीटा।
तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और डीसीपी मोनिका भारद्वाज घायल पुलिसकर्मिर्यों के हाल चाल जानने भी कई दिनों के बाद गए। जबकि मोनिका भारद्वाज का आपरेटर तो मोनिका भारद्वाज को बचाते हुए ही घायल हुआ था।
मोनिका भारद्वाज के साथ वकीलों ने बदसलूकी की लेकिन मोनिका भारद्वाज ने एफआईआर दर्ज कराने की हिम्मत तक नहीं दिखाई।
बिना किसी तैयारी के यानी पर्याप्त संख्या में पुलिस बल के बिना तीस हजारी कोर्ट में  पहुंच गई मोनिका भारद्वाज को हमलावर वकीलों के सामने हाथ जोड़ने पड़े और अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। इससे उनकी पेशेवर काबिलियत की पोल खुल गई।
मोनिका भारद्वाज को अपराध कम दिखाने के लिए अलग अलग दिन और स्थान पर हुई  88 वारदात को एक ही एफआईआर में दर्ज करने में महारत हासिल है।
FIR के लिए हवलदार ने लगाई गुहार-
पुलिस वालों के मामले भी सही दर्ज नहीं करते अफसर-
 DCP को बताने के बावजूद सही धारा नहीं लगाईं-
तीन मई 2020 को केशव पुरम थाना के एस एच ओ नरेन्द्र शर्मा ने हवलदार महेंद्र पाल की छाती पर चाकू मारने के मामले में भी हत्या की कोशिश का मामला दर्ज नहीं किया। ट्रैफिक पुलिस के टोडा पुर मुख्यालय में तैनात हवलदार महेंद्र ने अपने अफसरों को यह बात बताई। वरिष्ठ अफसर ने उत्तर पश्चिम जिला पुलिस उपायुक्त विजयंता गोयल आर्य को फोन कर सारी बात बताई।
इसके बाद आईओ हवलदार का बयान दोबारा लेकर गया।
इसके बाद भी हत्या की कोशिश की बजाए धारा 324/341/34 के तहत मामला दर्ज किया गया।
हवलदार फिर दोबारा अपने वरिष्ठ अफसरों के सामने पेश हुआ और बताया कि आपके डीसीपी से बात करने के बावजूद हत्या की कोशिश की धारा  एफआईआर में दर्ज नहीं की गई।

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