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अनुपम ही रहे अनुपम मिश्र !

 

साथी तेरे सपनों को मंजिल तक पहुचाएंगे

19 दिसम्बर, 2016 की सुबह एक जलधारा का प्रवाह रुक गया। अनुपम मिश्र का जाना तालाबों, नदियों, समुद्रो के अनगनित जल धाराओ की एक मुखर आवाज़ का सहसा मौन हो जाना है। एक बडा मौन खालीपन जिसकी भरपाई की सोच भी मुश्किल है।

 

अनुपम मिश्र, पर्यावरण कक्ष, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान। इसी पते से उन्होंने 80 के दशक में देश के पर्यावरण पर एक संपूर्ण किताब लिखी। जो संभवतः देश मे पर्यावरण की सारी चिन्ताओ को समेटती थी । जो आज भी प्रासंगिक है। “आज भी खरे है तालाब”ने उन्हे एक अलग पहचान दिलाई किन्तु उनसे ज्यादा जल के पारंपरिक सरंक्षण को, वर्तमान के सामने एक विकल्प के रूप मे रखा। ये एक ऐसी किताब रही जिसकी लाखो प्रतियाँ देश की विभिन्न भाषायो मे स्वयं लोगो ने अनुवाद करके छापी।

 

अनुपम जी का लेखन-कार्य-समझ बिलकुल निर्मल जल की पोखरी जैसा ही था। वे बहुत ही सरल शब्दों मे समस्याओं के समाधान को रखते रहे। नम्रता उनकी बोली से लेकर व्यक्तितव तक रची बसी थी । वे जीवन पर्यंत बिना किसी बड़ी महत्वाकांक्षा लिए पानी के बड़े कार्यकर्ताओं का निर्माण करते रहे। राजस्थान के राजेन्द्र सिंह से लेकर कितने ही ग्रामीण-शहरी युवायो की वे साक्रिय प्रेरणा है। ना किसी पुरस्कार की होड़ मे, ना किसी सम्मान के पीछे भागने वाले अनुपम जी का जाना जन-आन्दोलन मे लगे कार्यकर्ताओं की व्यक्तिगत क्षति ही है।

 

भवानी मिश्र जैसे हिंदी के महान निर्भीक कवि के सुपुत्र की होने की थाती को संभालना और जीवन पर्यंत बेदाग स्वच्छ सादगिपूर्ण जीवन जीना अतुलनिय है।

 

वे एक जल-सरंक्षण कार्यकर्ता थे । गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में उनके पर्यावरण कक्ष में आपको गाँधी के विभिन्न डाक टिकेट बोर्ड पर चिपके मिलेंगे जिस करीने से किसी के पुराने लिफाफे और डाक टिकट का वे इस्तेमाल करते थे वो उनकी कार्याशैली को बृहत पर्यावरण सरंक्षण से जोड़ती है।

 

बड़े बांधो का विरोध हो, या नदी-तालाब का संरक्षण हो, शहरी और ग्रामीण विकास की प्रक्रिया या मॉडल हो; हमें हमेशा हर जलमंच पर अनुपम मिश्र जरूर नजर आयेंगे। उनके जीवन कार्य का विकल्प तो नहीं किन्तु सच्ची श्रद्धान्जलि उनके जल कार्य को लगन पूर्वक करते रहना ही होगा।

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