इस्राइल के राष्ट्रपति रुवेन रिवलिन की भारत-यात्रा पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, नहीं दिया गया, क्योंकि बड़े नोटों की बदली ने सारे देश और प्रचारतंत्र को उलझा रखा है। इस्राइली राष्ट्रपति पिछले 25 साल में दूसरी बार भारत आए हैं। अब से 25 साल पहले प्रधानमंत्री नरसिंहरावजी ने हिम्मत दिखाई और इस्राइल के साथ राजनयिक संबंध कायम किए। यों मोरारजी देसाई के जमाने में भी कुछ गोपनीय ढंग से संबंध बढ़े थे और इस्राइल के महत्वपूर्ण लोगों ने दिल्ली-यात्रा की थी लेकिन भारत हमेशा दो कारणों से झिझकता रहा।
एक तो फलस्तीनियों के संघर्ष का भारत डटकर समर्थन करता रहा है और दूसरा भारत के मुसलमानों के इस्राइल-विरोधी रवैए का वह ख्याल करता रहा है लेकिन इसके बावजूद भारत-इस्राइल घनिष्टता इधर तेजी से बढ़ी है। उसके भी दो प्रमुख कारण हैं। एक तो इस्राइल ने फौजी शस्त्रास्त्र बनाने में जो महारत हासिल की है, उसका फायदा उठाने की इच्छा ! इस यात्रा के दौरान रिवलिन के साथ नए हथियार बनाने पर सहमति हुई है। भारत का फौजी साजो-सामान भी सबसे ज्यादा इस्राइल ही खरीदता है। दूसरा, भारत और इस्राइल को जोड़नेवाला सबसे बड़ा तत्व है- आतंकवाद ! रिवलीन ने आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कही है लेकिन यह स्पष्ट है कि इस्राइल के मुकाबले भारत में मामूली दमखम भी नहीं है। भारत अपनी फर्जीकल स्ट्राइक को सर्जिकल स्ट्राइक प्रचारित करता रहता है जबकि इस्राइली कार्रवाई का ढिंढौरा सारी दुनिया में अपने आप पिटता रहता है।
इस्राइल से संबंध बढ़ाने का अमेरिकी आयाम भी है। अमेरिका का ताकतवर यहूदी समुदाय भारत-इस्राइल निकटता से बहुत खुश होता है। वह पाकिस्तान से अमेरिका के संबंधों को शिथिल करना चाहता है, जो अपने आप हो ही रहे हैं। अब डोनाल्ड ट्रंप के आते ही यह दौर ज्यादा जोर पकड़ेगा। अगले साल भारत के प्रधानमंत्री इस्राइल-यात्रा करेंगे ही। यदि भारत-इस्राइल घनिष्टता वाकई बढ़ जाए तो यह भी संभव है कि फलस्तीनी मामले को सुलझाने में भारत का जबर्दस्त योगदान हो जाए।
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