डॉ. वेदप्रताप वैदिक,
सत्तारुढ़ दल भाजपा के सबसे वरिष्ठ सांसद श्री लालकृष्ण आडवाणी ने पक्ष और विपक्ष दोनों को आड़े हाथों लिया है। उन्होंने विपक्ष के द्वारा नोटबंदी पर किए जा रहे हो-हल्ले को जितना अनुचित बताया है, उतना ही दोषी उन्होंने लोकसभा-अध्यक्षा और संसदीय कार्य मंत्री वैंकय्या नायडू को भी ठहराया है। आडवाणीजी अपने वाणी-संयम के लिए विख्यात हैं, फिर भी उन्हें लोकसभा अध्यक्षा सुमित्रा महाजन की आलोचना करनी पड़ी है।
सुमित्राजी यों तो कुशल अध्यक्षा हैं और आडवाणीजी की प्रिय पात्र रही हैं लेकिन पिछले 2-3 हफ्तों से संसद का जो हाल हो रहा है, वे खुद क्या कर सकती हैं? क्या वे प्रधानमंत्री को मजबूर करें कि वे नोटबंदी पर अपना वक्तव्य दें? भाजपा बहस तो चाहती है लेकिन नोटबंदी पर मतदान नहीं चाहती है।
यदि मतदान होगा तो राज्यसभा में वह निश्चय ही हार जाएगी। विपक्ष मतदान पर जोर दे रहा है। मैं तो कहता हूं कि यदि नरेंद्र मोदी यह मानते हैं कि नोटबंदी उन्होंने जनता की भलाई के लिए की है तो वे मतदान से क्यों डर रहे हैं? यदि राज्यसभा में सरकार हार गई तो भी क्या? दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में वह जीत ही जाएगी और यदि इस मुद्दे पर सरकार गिरती ही हो तो गिर जाने दें। इस मुद्दे पर मध्यावधि चुनाव क्यों न करवा दिए जाएं। वह नोटबंदी पर जनमत-संग्रह हो जाएगा।
संसद में मतदानवाली बहस हो या न हो, मोदी को नोटबंदी पर वक्तव्य देने के लिए कौन मना कर सकता है? सुमित्राजी चाहें तो प्रधानमंत्रीजी को वक्तव्य देने का निर्देश भी कर सकती हैं। प्रधानमंत्री ने आज तक नोटबंदी पर संसद में मुंहबंदी क्यों कर रखी है? संसद के बाहर वे कोई मौका नहीं छोड़ते जबकि वे नोटबंदी पर एकालाप न करते रहते हों।
यह अच्छा नहीं होगा कि लोकसभा अध्यक्ष के निर्देश पर उन्हें बोलना पड़े। इससे उनकी और पार्टी की छवि खराब होगी। उन्हें साहस जुटाना चाहिए। खुद पहल करना चाहिए। यदि उन्हें लग रहा है कि नोटबंदी का फैसला जल्दबाजी में या गलती से हो गया है तो वे वैसा कह डालें। जनता उन्हें माफ कर देगी। अभी भी उनके लिए भारत के आम आदमी में सहानुभूति और सम्मान का भाव है। हो सकता है कि यह सद्भाव कुछ दिन बाद नदारद हो जाए।
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