डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के सेनापति जनरल राहील शरीफ 29 नवंबर को सेवा-निवृत्त होनेवाले हैं। उन्होंने अपने बिदाई-समारोह में उपस्थित होना शुरु कर दिया है। वे शीघ्र ही कराची और लाहौर भी जाएंगे। अभी तक नए सेनापति का नाम घोषित नहीं हुआ है लेकिन यह तय माना जा रहा है कि राहील शरीफ की अवधि को बढ़ाया नहीं जा रहा है। ऐसा पिछले 20 वर्षों में पहली बार हो रहा है। पाकिस्तानी व्यवस्था में फौज का महत्व सर्वोपरि होता है। पाकिस्तान का सेनापति वास्तव में पाकिस्तानपति होता है। यह ठीक है कि सेनापति की नियुक्ति प्रधानमंत्री करता है लेकिन कुर्सी सम्हालते ही वह सेनापति सर्वोच्च शक्तिसंपन्न व्यक्ति बन जाता है। इसीलिए सेनापतियों की अवधि बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री लोग मजबूर हो जाते हैं। जनरल जिया-उल-हक, परवेज मुशर्रफ और अशफाक परवेज कयानी की अवधियां बढ़ती रही हैं।
जनरल शरीफ की अवधि बढ़ने की संभावना इसलिए प्रबल हो गई थी कि एक तो वे अपने आतंकवाद विरोधी अभियान के कारण बहुत लोकप्रिय हो गए थे और दूसरा, उन्होंने भारत के विरुद्ध कड़ा रुख अपना रखा था। तीसरा, उन्हें मियां नवाज़ का प्रिय भी माना जाता था। चौथा, पनामा पेपर्स के कारण नवाज़ की स्थिति कुछ कमजोर भी हुई थी। जनरल शरीफ के प्रशंसक उन्हें राजनीति में आने की दावत खुले-आम दे रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि वे खुद के आग्रह पर ही सेवा-निवृत्त हो रहे हैं ताकि वे खुलकर राजनीति कर सकें। अभी उन्हें अपने पद से अलग होने में पूरा एक सप्ताह है। कुछ लोगों का डर है कि इस्लामाबाद में कुछ भी हो सकता है।
जो भी हो, प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ किसी ऐसे जनरल को सेनापति नियुक्त करना चाहेंगे, जो भारत-पाक संबंधों के सुधार में अड़ंगा न लगाए लेकिन पाकिस्तान में ‘भारत-भय’ के भूत ने ऐसा माहौल पैदा कर दिया है कि फौज की इबारत ही पत्थर की लकीर होती है। क्या ही अच्छा हो कि भारत सरकार दोनों देशों के फौजियों के बीच सीधे संवाद का नया सेतु खड़ा करे। नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ के पास अब बहुत कम समय बचा है, जबकि वे अपने शुरुआती दौर की सदभावना को परवान चढ़ा सकें।
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