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प्रणब मुखर्जी (1935-2020) : जन-जन के राष्ट्रपति

जयंत घोषाल 

नई दिल्ली| प्रणब मुखर्जी के बारे में, कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने एक बार मुझे बताया था कि वह ध्रुपद संगीत की तरह हैं। अगर आप ध्रुपद को नहीं समझते हैं या फिर आपके कानों को ध्रुपद सुनने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया है, तो आपके लिए संगीत का आनंद लेना मुश्किल होगा।

ध्रुपद की उपमा यह धारणा देती है कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एक निर्जन व्यक्ति थे, जो तथाकथित आधुनिक गैजेट्स, आधुनिक जीवन शैली और देर रात तक चलने वाली पार्टियों से कोसों दूर रहे और इसके बजाय वह राजनीति और पढ़ने में तल्लीन रहे।

प्रणब मुखर्जी का लंबा राजनीतिक जीवन रहा और उन्होंने ऐजॉय मुखर्जी की बांग्ला कांग्रेस से अपनी राजनीतिक सफर शुरू किया। 1969 में वह बांग्ला कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में राज्य सभा के सदस्य बने। बाद में वह इंदिरा गांधी की निगाहों में आ गए। यह कैसे हुआ, इसके पीछे भी एक प्रसिद्ध कहानी है, जो आज भी प्रासंगिक लगती है।

1969 में इंदिरा गांधी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लिए तैयारी में थीं और मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री के रूप में हटा दिया गया था, जिसके लिए एक कारण यह था कि वे उस सिंडिकेट के बीज रोपण कर रहे थे, जो इंदिरा गांधी के खिलाफ जाता। वहीं उनकी दृष्टि और विचारधारा दक्षिणपंथी (राइट विंग) की थी और वह बैंकों के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ थे।

इंदिरा गांधी ने केंद्र के स्वामित्व वाले निगमों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के महत्व को समझा और वह इसके साथ ही आगे बढ़ना चाहती थीं। यह वो समय था, जब एक दिन देर शाम को राज्यसभा लगभग खाली थी और वहां इंदिरा गांधी मौजूद थीं। उस समय उन्होंने सदन में प्रणब मुखर्जी का भाषण सुना।

मुखर्जी ने अपने भाषण में तमाम उदाहरण और तर्क पेश करते हुए समझाया कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण करना क्यों आवश्यक है। उनके शानदार भाषण को सुनकर इंदिरा गांधी एक ही समय में हैरान और प्रभावित हुईं। उन्होंने उस समय के पार्टी के मुख्य सचेतक रहे ओम मेहता से पूछा कि वह नौजवान कौन है, जिन्होंने शानदार भाषण दिया है। ओम मेहता ने मुखर्जी के बारे में पता लगाया और गांधी को इसकी जानकारी दी थी।

तब से ही प्रणब मुखर्जी इंदिरा गांधी की नजरों में आ गए थे और धीरे-धीरे वह उनके पसंदीदा बन गए। कांग्रेस के साथ बांग्ला कांग्रेस के विलय के बाद जो हुआ, वह अब इतिहास है। वह इंदिरा गांधी के काफी करीबी बन गए। वह पी. वी. नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के दौर में कांग्रेस पार्टी में सर्वव्यापी रहे।

हालांकि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी, यह एक ऐसा निर्णय था कि उन्हें यह कहते हुए पछतावा हुआ कि यह एक गंभीर गलती थी। जब हम 1984 में पत्रकारिता में आए, तो उन्होंने राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी बनाई थी। बाद में यहां तक कि राजीव गांधी को अपनी गलती का एहसास हुआ और त्रिपुरा विधानसभा में उन्होंने प्रणब मुखर्जी को शामिल किया और उन्हें पार्टी में वापस लाया गया।

दुर्भाग्य से राजीव गांधी का निधन हो गया। मैंने सुना था कि उन्होंने मुखर्जी को वित्त मंत्री बनाने की योजना बनाई थी। उन्होंने उन्हें एआईसीसी के आर्थिक प्रकोष्ठ का प्रमुख बनाया था। लेकिन उस समय मुखर्जी की किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। राजीव गांधी की मृत्यु के बाद, मुखर्जी भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिए उस समय की राजनीति में संकट प्रबंधक बन गए। मैं 1984 में मुखर्जी से मिला। मैं उनसे जिला कांग्रेस के अध्यक्ष अमिय दत्ता के माध्यम से मिला, जो मुखर्जी की पार्टी राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में शामिल हुए। मैं उनसे दक्षिणी एवेन्यू में अपार्टमेंट में मिला। वह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी।

उसके बाद, मैंने उनके साथ भारत या विदेश में कई स्थानों की यात्रा की है। आज मुझे एक बात महसूस होती है कि मैंने उन्हें प्रमुख संवैधानिक पद राष्ट्रपति पर रहते हुए देखा, मगर उन्होंने अपना सारा जीवन इस मलाल या पीड़ा से गुजारा कि उन्हें पता था कि उनमें प्रधानमंत्री बनने की क्षमता है। जब वह मनमोहन सिंह की सरकार में शामिल हुए तो वह इसे लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे। जिस दिन मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनें, वह सरकार में अपनी भूमिका के बारे में सोच रहे थे, क्योंकि पहले तो उन्हें गृह मंत्रालय देने के संबंध में चर्चा हुई।

बाद में यह बदल गया और उन्हें रक्षा मंत्रालय दिया गया। उन्होंने समझा कि कहीं न कहीं गांधी परिवार के साथ विश्वास की कमी थी, जो अंतिम दिन तक खत्म नहीं हुई। वह इंदिरा गांधी के बाद दूसरे नंबर पर थे।

आज प्रणब मुखर्जी के आकस्मिक निधन पर कई यादें इतिहास से बाहर निकलकर सामने आ रही हैं। वह भोजन से जितना प्यार करते थे, उतना ही वह उपवास भी करते थे। उन्हें कभी भी हिंदू ब्राह्मण के तौर पर नहीं देखा गया। उन्होंने हमेशा भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व किया।

वह वास्तव में कभी टकराव वाली स्थिति में नहीं रहते थे और उन्हें भारतीय राजनीति के चाणक्य के रूप में जाना जाता था, क्योंकि वे एक महान वार्ताकार होने के साथ ही, जोड़तोड़ करने वाले और राजनीति के लिए जो कुछ भी आवश्यक था, वह सब उनके पास था।

(लेखक जयंत घोषाल एक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

–आईएएनएस

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