डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मोदी सरकार की दूसरी पारी का पहला साल पूरा हुआ लेकिन यह वैसा नहीं मनाया गया, जैसा कि हर साल उसकी वर्षगांठ मनाई जाती है। यदि कोरोना नहीं होता तो यह उत्सवप्रेमी और नौटंकीप्रिय सरकार देश के लोगों को पता नहीं, क्या-क्या करतब दिखाती। इस एक साल में उसने कई ऐसे चमत्कारी कार्य कर दिखाए, जो वह पिछली पारी के पांच साल में भी नहीं कर सकी थी।
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जैसे धारा 370 को खत्म करके अधर में लटके हुए कश्मीर को लाकर मोदी ने जमीन पर खड़ा कर दिया। वैसे तो धारा 370 के कई बुनियादी प्रावधानों को इंदिरा सरकार ने काफी कुतर डाला था लेकिन फिर भी औपचारिक तौर से उसे हटाने की हिम्मत पिछली किसी भी कांग्रेसी या गैर-कांग्रेसी सरकार ने नहीं की थी। इसी प्रकार तीन तलाक की कुप्रथा को समाप्त करने का साहस दिखाकर मोदी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को अपूर्व राहत प्रदान की, हालांकि इस कदम को कई विरोधी नेताओं ने मुस्लिम-विरोधी बताकर इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिंदू राष्ट्रवादी पैंतरा कहने की भी कोशिश की।
जहां तक पड़ौसी मुस्लिम देशों के गैर-मुस्लिम शरणार्थियों के स्वागत के कानून का सवाल है, उसका विरोध न सिर्फ भारत के मुसलमानों ने डटकर किया बल्कि सभी विरोधी पार्टियों ने उसकी भर्त्सना की। मेरी अपनी राय यह थी कि पड़ौसी देशों के शरणार्थियों को शरण देने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन उसका आधार मजहब नहीं बल्कि उनका अपना गुण-दोष होना चाहिए।
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थोक में किसी को भी नागरिकता देना भारत की सुरक्षा को खतरे में डालना है। इस मुद्दे पर गहरा असंतोष भड़क रहा था और नागरिकता रजिस्टर का मामला भी तूल पकड़ रहा था लेकिन कोरोना की लहर में ये सारे मुद्दे और सरकार की प्रारंभिक उपलब्धियां भी अपने आप दरी के नीचे सरक गईं। जिस तथ्य ने सरकार को सांसत में डाल रखा था याने बढ़ती हुई बेरोजगारी और घाटे की अर्थव्यवस्था, वह कोरोना-संकट की वजह से अब आसमान छूने लगी है।
मोदी ने 24 मार्च को तालाबंदी घोषित करने में वही गल्ती की, जो उन्होंने पिछली पारी में नोटबंदी और जीएसटी के वक्त की थी। आगा-पीछा सोचे बिना धड़ल्ले से कुछ भी कर डालने के नतीजे सामने हैं। तालाबंदी तीसरे महिने में प्रवेश कर गई है, कल कारखाने, दुकानें, दफ्तर ठप्प हैं, प्रवासी मजदूरों की करुणा-कथा बदतर होती जा रही हैं, हताहतों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। इसमें शक नहीं कि केंद्र और राज्य-सरकारें कोरोना से लड़ने की जी-तोड़ कोशिशें कर रही हैं लेकिन डर यही है कि यह संकट कहीं सारी उपलब्धियों पर भारी न पड़ जाए।
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