किसी जमाने में तानाशाह हिटलर के गैस-चेंम्बर कुख्यात थे। एक चेंम्बर में एक यहूदी को बिठा दिया जाता था और मिनिटों में उसका दम घुट जाता था लेकिन जब कोई पूरा शहर ही गैस-चेंम्बर बन जाए तो हालत क्या हो सकती है? पिछले सप्ताह को दिल्ली का इतिहास कभी भुला नहीं पाएगा। इतना दमघोंटू धुंआ या कुहासा मैंने दिल्ली में पिछले 50 साल में कभी नहीं देखा। इस गैस-चेंम्बर में फंसा हुआ आदमी तुरंत नहीं मरता। वह मरता जरुर है लेकिन रह-रहकर ! अपने मरने का उसे पता ही नहीं चलता। इसे हम मोदी-केजरीवाल गैस-चेंम्बर नहीं कह सकते, क्योंकि इसे हिटलर की तरह उन्होंने बनाया नहीं है और उनका दम भी इसी चेंम्बर में घुट रहा है लेकिन दिल्ली और केंद्र की सरकारें इतनी दिन सोती रहीं, यही आश्चर्य का विषय है।
फिलहाल दिल्ली सरकार ने कुछ ठोस कदम उठाए हैं। उनके सुपरिणाम शीघ्र दिखाई देंगे। हवा चलनी भी शुरु हो गई है। धूप भी जरा तेज निकली है लेकिन ये सारे कदम तात्कालिक राहत पहुंचाएंगे। यह तात्कालिक राहत बेहद खतरनाक सिद्ध हो सकती है, क्योंकि जो स्थायी जहर दिल्लीवाले हर क्षण पीते रहते हैं, उस पर पर्दा पड़ जाएगा। सब समझेंगे, सब ठीक-ठाक हो गया है।
स्थायी राहत के लिए कुछ सुझाव मेरे पास भी हैं। जैसे, उन्हीं कारों को मुख्य सड़कों पर तभी चलने दिया जाए, जबकि उनमें कम से कम चार सवारी हों। कम सवारीवाली कारों पर टैक्स लगाया जाए। अब से 50 साल पहले मैंने इस नियम को लागू होते हुए अमेरिका में देखा था। इसके फलस्वरुप सड़कों पर चार की बजाय एक कार चलेगी। 3/4 प्रदूषण घटेगा।
दूसरा, प्रदूषणकारी कारों पर कठोर जुर्माना लगाया जाए। डीजल की पुरानी कारें, बसें, ट्रक आदि बंद किए जाएं। सार्वजनिक वाहन सीएनजी पर चलें। तीसरा, खेतों के कचरे की खाद बने। उसका जलाना बंद किया जाए। चौथा, पटाखों पर भारी टैक्स लगे। उन्हें शहर या गांव में निश्चित स्थानों पर ही चलाने की छूट हो। घरों और मोहल्लों में नहीं।
पांचवां, घरों, दुकानों, दफ्तरों और सड़कों पर पेड़ लगाए जाएं। छठा, सड़कों और मकानों को बनाते वक्त धूल पर काबू के लिए पर्दे या आड़ लगाई जाए। सातवां, लोगों से निवेदन है कि वे कारों में चलने को अपनी हैसियत का पैमाना न बनाएं। छोटी-मोटी दूरियां पैदल या साइकिल से भी पार की जा सकती हैं। ये कदम दिल्ली ही नहीं, देश के हर बड़े शहर के वासी उठा सकते हैं।
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