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विकास दुबे एनकाउंटर की एसआईटी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा पीयूसीएल

पुलिस का प्रतिशोध विकास दुबे की मुक्ति,न्याय व्यवस्था पर तमाचा

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इंद्र वशिष्ठ

विकास दुबे मारा गया या पुलिस ने उसे मुक्त कर दिया ? इस तरह के कथित एनकाउंटर एक तरह से अपराधी को मुक्त करते हैं। यह कोई पहला एनकाउंटर नहीं है।

इस तरह के कथित एनकाउंटर की देशभर में परंपरा रही है।

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कथित एनकाउंटरों में शामिल पुलिस वाले बारी से पहले तरक्की और वीरता पदक भी पाते रहे हैं और अपनी कथित बहादुरी की डींग जीवन भर हांकते रहते हैं।

अपराधी को गिरफ्तार कर उसके खिलाफ पुख्ता सबूत जुटाने और मजबूत आरोप पत्र तैयार कर अदालत में पेश करना पुलिस का मुख्य कार्य है। पुलिस के मज़बूत सबूतों और गवाहों के बयान के आधार पर अदालत अपराधी को सज़ा सुनाती हैं।

पुलिस द्वारा बनाए गए मजबूत केस के आधार पर अपराधी को सज़ा सुनाई जाती है तो पुलिस की पेशेवर ईमानदारी और काबिलियत का पता चलता है।

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सज़ा नहीं दिलाई मुक्त कर दिया-

एक अपराधी जिसने न जाने कितने लोगों की  जान ली थी। कितने लोगों का जीना हराम कर दिया था क्या उसको उसके किए अपराध की कड़ी सज़ा नहीं मिलनी चाहिए थी ? क्या उसे अपने बुरे कर्मों का फल नहीं भुगतना चाहिए था ? ऐसे अपराधी के खिलाफ मजबूत केस बना कर उसे सज़ा दिलानी चाहिए थी। अपराधी जेल में रहे और सज़ा भुगते तो उसे पता चलेगा कि बुरे काम का नतीजा बुरा होता है। न्यायिक प्रक्रिया से दंडित करने को ही इंसाफ़ कहते हैं।

विकास  का ही उदाहरण लें आठ पुलिस वालों की हत्या करने तक वह अपना जीवन दबंगता/ रौब से जीता रहा। अपनी मर्ज़ी से उज्जैन के महाकाल मंदिर में खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। आत्मसमर्पण के 24 घंटे के भीतर ही पुलिस हिरासत में वह एनकाउंटर में मारा गया।

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अब ऐसे में उसने क्या सजा भुगती ? वह तो एक तरह से मुक्त हो गया। सज़ा भुगतता तब ही तो उसे यह अहसास होता कि अपराध की सज़ा भुगतनी ही पड़ती है।

अपराधी को बिना सज़ा भुगते मार दिया जाना सज़ा नहीं होती सज़ा तो जीते जी भुगतने को ही कहते हैं।

 पुलिस, नेता, न्याय व्यवस्था जिम्मेदार-

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बड़े अपराधी माफिया अदालत से छूट जाते हैैं। जेल जाते भी हैं तो वहां भी न केवल आराम से रहते हैं बल्कि जेल से अपना गिरोह चलाते हैं।

यह सब बातें सही हैं लेकिन इसके लिए क्या सिर्फ़ अपराधी जिम्मेदार है ? इसके लिए पुलिस, नेता, न्याय व्यवस्था और समाज भी जिम्मेदार है।

सबसे ज्यादा पुलिस जिम्मेदार है। कोई भी अपराधी विकास दुबे ,श्रीप्रकाश शुक्ला, मुखतार अंसारी, बृजेश सिंह जैसा बिना पुलिस के संरक्षण के बन ही नहीं सकता है। अपराधी जब शुरू में छोटे मोटे अपराध करता है या उसके अत्याचार के खिलाफ लोग शिकायत करते हैं तो भ्रष्ट पुलिस उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं करती हैं। जिससे अपराधी बेख़ौफ़ होता जाता है। अपराधी कुख्यात होने लगता है तो वह अपने बचाव के लिए किसी नेता की शरण में पहुंच जाता है। भ्रष्ट नेता को अपना दबदबा कायम रखने के लिए गुंडों की जरूरत होती है। इसके बाद जिस पुलिस को अपराधी पहले पैसा देकर खरीद लेता था अब वह राजनेता के संरक्षण के चलते पुलिस को भी कुछ नहीं समझता हैं।

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 इसका ताजा उदाहरण विकास दुबे है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि बिकरु थाना उसके इशारे पर काम करता था। एक पुलिस वाले को तो उसने पीट भी दिया था।

भ्रष्ट पुलिस वालों और सत्ता धारी नेताओं के संरक्षण के चलते ही अपराधी इतना बेख़ौफ़ निरंकुश हो जाते हैं कि वह पुलिस पर भी हमला कर देते हैं। लेकिन इस के लिए मुख्य रूप से पुलिस ही जिम्मेदार है। पुलिस अगर ईमानदारी से शुरू से अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें तो किसी अपराधी की इतनी औकात नहीं है कि वह पुलिस पर हमला करने की बात सोच भी ले।

खादी और खाकी सबसे बड़े गुंडे-

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 पुलिस और नेताओं से सांठ-गांठ के कारण अपराधी का अहंकार में इतना दिमाग ख़राब हो जाता है कि वह इस भ्रम में जीने लगता है नेता और पुलिस सबसे ऊपर वह ही हैं। जबकि वह यह भूल जाता है कि उससे भी बड़े गुंडे तो उसके आका खादी और खाकी वाले हैं। जो उसके जैसे गुंडे का सिर्फ इस्तेमाल करते हैं। कोई भी समझदार गुंडा कभी भी पुलिस वालों पर गोली नहीं चलाता है पुलिस पर गोली चलाने का मतलब ही होता है कि अपनी मौत को खुद न्योता देना। विकास  ने अपने डेथ वारंट पर खुद हस्ताक्षर किए थे।

एक जज ने  बहुत साल पहले पुलिस को वर्दी वाले गुंडे कह दिया था।

गद्दार पुलिस वालों का एनकाउंटर कौन करेगा ? –

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आईपीएस अफसर ईमानदार हैं तो उन गद्दार पुलिस वालों को गिरफ्तार करें जो विकास  को संरक्षण देते थे। जिन पुलिस वालों ने विकास के लिए मुखबिरी की थी। आठ पुलिस वालों की हत्या  के लिए वह भ्रष्ट पुलिस वाले विकास से ज्यादा कसूरवार है।

अपराधी में कानून का डर हो-

दिल्ली पुलिस ने एक बार पंजाबी बाग के व्यापारी वेद गोयल के अपहरण के मामले में मुख्तार अंसारी को गिरफ्तार किया था। पुलिस हिरासत में अंसारी को नंगा करके उसकी टांगें चौड़ी करा दी  थी। ऐसा कराने वाले पुलिस अफसर ने बताया कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि अपराधी का मनोबल टूटे और उसे पूरी जिंदगी याद रहे कि पुलिस क्या होती है। अपराधी में कानून और पुलिस का डर बिठाना ज़रुरी है।

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दूसरी ओर जेलों में ऐसे अफसर भी होते है जो जेल में इस तरह के अपराधियों को सारी सुविधाएं उपलब्ध करवाते हैं।

पुलिस वाले ही मुकर गए-

असल में समस्या यह है कि पुलिस सत्ताधारी नेताओं और न्याय व्यवस्था को दोषी ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। पुलिस कहती है हम मेहनत और अपनी जान जोखिम में डालकर अपराधी को पकड़ते हैं और अदालत उसे छोड़ देती है। यह बात कुछ हद तक सही हो सकती लेकिन पूरी तरह सही नहीं है।

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असल में पुलिस अपराधी के खिलाफ केस ही मजबूत नहीं बनाती, पुख्ता सबूत नहीं जुटाती है और तो और पुलिस वाले तक अपराधी के खिलाफ गवाही देने से मुकर जाते हैं।

 विकास  ने थाने के अंदर मंत्री संतोष शुक्ला की हत्या की। इस मामले में थाने में वारदात के समय मौजूद पुलिस वाले ही विकास  के खिलाफ गवाही देने से मुकर गए। अदालत ने विकास  का बरी कर दिया। अब इस मामले में अदालत को भला कैसे दोषी ठहरा सकते हैं। जब पुलिस वाले ही अपराधी के खिलाफ गवाही देने के अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते तो आम आदमी बेचारा अपराधी के खिलाफ गवाही देने की हिम्मत कहां से जुटाएगा।

व्यवस्था का पतन-

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पुलिस, नेता,जेल अफ़सर और जज  पूरी व्यवस्था के पतन के लिए जिम्मेदार है। अपना काम ईमानदारी से न करके अपनी नाकामियों के लिए एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं।

एनकाउंटर स्पेशलिस्ट –

कथित एनकाउंटर के आधार पर बारी से पहले तरक्की और वीरता पदक पाने वाले पुलिस अफसरों को सरकार को कश्मीर और छत्तीसगढ़ में भी तैनात कर देना चाहिए। ऐसे कथित “बहादुर” अफसरों की सेवाएं आतंकवादियों और नक्सलियों का एनकाउंटर करने के लिए लेनी चाहिए। सेना और अर्धसैनिक बलों को जिन आतंकवादियों को मारने में कई बार कई कई दिन लग जाते हैं।  ऐसे बहादुर अफ़सर उनको कुछ ही मिनटों में ढ़ेर कर देंगे। दिल्ली पुलिस में भी वीरता पदक धारी ऐसे “बहादुर” पुलिस अफसरों की भरमार है।

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एनकाउंटर

वैसे एनकाउंटर किसे कहते है आठ पुलिस अफसरों के शहीद होने ने यह बता दिया। वरना पुलिस तो ज्यादातर मामलों में दावा करती है कि मारा गया अपराधी अचूक निशाने बाज था। लेकिन अचूक निशाने बाज अपराधी की गोली किसी पुलिस वाले की जान नहीं ले पाती?  गोली ज्यादातर बुलेट प्रूफ जैकेट से टकरा कर या शरीर से रगड़ कर ही निकल जाती है।

आत्मसमर्पण करने वाला क्यों भागेगा –

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 देश का कानून पुलिस को यह अधिकार नहीं देता कि वह ख़ुद ही अपराधी को सज़ा दे सकते हैं।

हर एनकाउंटर के बाद पुलिस का रटा रटाया ज़वाब होता है और अपराधी ने पुलिस पर गोली चलाई या हथियार छीन कर भागने की कोशिश की। जवाबी कार्रवाई में मारा गया।

विकास दूबे के मामले में भी यही कहा जा रहा है।

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विकास  ने खुद आत्म समर्पण किया था फिर भला वह भागने की कोशिश क्यों करता ?

हालांकि हर एनकाउंटर के बाद मामला भी दर्ज़ किया जाता है और एनकाउंटर की तफ्तीश भी की जाती है। लेकिन यह सब खानापूर्ति ही होती है। एनकाउंटर में शामिल पुलिस वालों के खिलाफ भला वहीं की पुलिस ईमानदारी से जांच कर सकती हैं ? मरने वाले अपराधी होते है इसलिए मामले रफा-दफा हो जाते हैं।

पुलिस ईमानदार हो-

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अपराधियों पर अंकुश लगाने का सिर्फ एक ही  रास्ता है अफसर ईमानदार हो। पुलिस अफसर ईमानदारी से अपराध की सही एफआईआर दर्ज करें। पुख्ता सबूत जुटा कर अदालत में पेश करें जिसके आधार पर अदालत सज़ा सुना सके। अपराधी जेल में सज़ा भुगते तभी अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है।

समाज की भूमिका- समाज और मीडिया को अपराधियों का महिमा मंडन नहीं करना चाहिए। समाज द्वारा अपराधी का बहिष्कार करने की बजाए उन्हें सम्मानित किया जाता है।

रक्षक बने भक्षक-

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विकास एक दिन में तो इतना बड़ा अपराधी बना नहीं।

 एनकाउंटर में शहीद हुए सीओ देवेंद्र मिश्र ने

विकास  की चौबेपुर थाने के एसओ विनय तिवारी से सांठ-गांठ की शिकायत  कानपुर एस एस पी  से की थी।  असल में विकास से ज्यादा खतरनाक तो वह पुलिस वाले और नेता हैं जो इतने सालों से विकास को संरक्षण दे रहे थे।

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विकास के मरने से इनको कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि इन्होंने न जाने कितने विकास तैयार कर रखे है या दूसरा विकास तैयार कर लेंगे।

पुलिस का प्रतिशोध-

विकास  ने पुलिस वालों को मार दिया इसलिए पुलिस द्वारा उसे मार कर बदला लिया जाना तो तय था ही। अगर विकास  पुलिस वालों को नहीं मारता तो पुलिस की कृपा से उसका राज़ क़ायम रहता।

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पुलिसवाले मारे गए तो पुलिस ने तुरंत विकास  के मकान को भी तोड़ दिया।

विकास दुबे  ने मकान अवैध रूप से बनाया हुआ था तो पुलिस ने मकान पहले क्यों नहीं तोड़ा।

पुलिस को  मकान तोड़ने या तुड़वाने का अधिकार किस कानून ने दिया है ?

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पुलिस वाले मारे गए तो पुलिस ने कानूनी/ ग़ैर क़ानूनी सारे तरीके इस्तेमाल कर लिए। दूसरी ओर आम आदमी के साथ हुए अपराध की तो एफआईआर तक आसानी से दर्ज नहीं की जाती है।

अदालत बंद कर दो-

पुलिस द्वारा प्रतिशोध में एनकाउंटर करना उचित है तो आम आदमी द्वारा भी प्रतिशोध/ बदला लेने को जायज़ ठहराया जा सकता है। फिर तो देश में अदालतों को बंद कर देना चाहिए।

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बलात्कारियों का एनकाउंटर-

कुछ दिन पहले हैदराबाद में पुलिस ने बलात्कारियों को एनकाउंटर में मार दिया था। लोगों ने उस समय भी खुशी जाहिर की थी।

ख़ुशी ज़ाहिर करके लोग एक तरह से जंगल राज को बढ़ावा दे रहे हैं। जिसे किसी भी सभ्य समाज में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।

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आम आदमी ही नहीं पुलिस वाले भी विकास  के मारे जाने पर खुशी जता रहे हैं। इस खुशी में पुलिस वाले  यह भूल रहे हैं कि आठ पुलिस वालों को मारने का दुस्साहस विकास ने पुलिस में मौजूद गद्दारों के दम पर किया था।

डीएसपी को पुलिस वालों ने मार दिया-

इसी उत्तर प्रदेश में 1982 में गोंडा के डीएसपी के पी सिंह की एनकाउंटर के दौरान उनके मातहत गद्दार पुलिस वालों ने ही गोली मारकर हत्या कर दी थी। इस मामले में पुलिस वालों को सज़ा हुई।

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पुलिस पर अंकुश ज़रुरी-

पुलिस इतनी ईमानदार और काबिल नहीं हैं कि वह जो भी करेगी सही ही करेगी।

पुलिस निरंकुश न हो इसलिए यह व्यवस्था बनाई गई है कि पुलिस को अदालत में सबूतों के साथ यह साबित करना होता है कि जिसे उसने पकड़ा है वह वास्तव में अपराध में शामिल है।

पुलिस की सुनाई कहानी पर मीडिया और आम आदमी ही भरोसा कर सकते हैं। अदालत तो पुलिस की बात पर नहीं सिर्फ़ सबूतों के आधार पर भरोसा करती है।

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न्याय व्यवस्था पर तमाचा-

इस तरह के एनकाउंटर पुलिस की नाकामी और काबिलियत की पोल खोलते हैं। पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण पुलिस ने पेशेवर ईमानदारी और काबिलियत का रास्ता छोड़ कर खुद ही अपराधी को सज़ा देने का आसान रास्ता पकड़ लिया है। पुलिस के इस तरीके को जनसमर्थन मिल रहा है। लेकिन यह तरीका बहुत ही ख़तरनाक है। पुलिस का यह तरीका एक तरीके से न्याय व्यवस्था पर तमाचा है। इससे लोगों का न्याय व्यवस्था से भरोसा ख़त्म हो जाएगा।  न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका सबके कार्य और सीमा निर्धारित है।

पुलिस ही अगर सब कार्य ख़ुद करने लगे तो फिर न्यायपालिका की जरूरत ही क्या है।

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एनकाउंटर का हल्ला मचा-

विकास दूबे के आत्म समर्पण के साथ ही यह चर्चा शुरू हो गई थी कि उसका एनकाउंटर किया जाएगा।

आईपीएस ने उठाए सवाल-

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उत्तर प्रदेश पुलिस में आईपीएस अमिताभ ठाकुर ने तो टि्वटर पर  भी लिख दिया था कि हो सकता है विकास भागने की कोशिश करे और मारा जाए। इस मामले में सामने आई पुलिस की गंदगी के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। एनकाउंटर के बाद भी आईपीएस अमिताभ ठाकुर ने टि्वट किया कि  इतनी क्या हड़बड़ी थी ?  किसे बचाया जा रहा था ?

निरंकुश पुलिस-

इसके बावजूद पुलिस द्वारा एनकाउंटर कर दिया जाना दिखाता है पुलिस कितनी निरंकुश और दुस्साहसी हो गई है। पुलिस को अदालत का भी डर या परवाह नहीं है।

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सुप्रीम कोर्ट को कानून का राज कायम रखने के लिए  इस मामले में संज्ञान लेना चाहिए नहीं तो देश में  निरंकुश पुलिस राज़ को बढ़ावा मिलेगा।

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