नई दिल्ली| दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि कानून के अनुसार, यौन अपराध की पीड़िता को राज्य सरकार या आरोपी द्वारा शुरू की गई किसी भी आपराधिक कार्यवाही में पक्षकार बनाने की जरूरत नहीं है। अदालत ने कहा, “कानून में पीड़िता को पक्षकार बनाने की कोई जरूरत नहीं है, यानी पीड़िता को किसी भी आपराधिक कार्यवाही में पक्षकार बनाना, चाहे वह राज्य द्वारा या अभियुक्त द्वारा स्थापित किया गया हो।”
सुप्रीम कोर्ट के हाल के एक फैसले (जगजीत सिंह और अन्य बनाम आशीष मिश्रा एटदरेट मोनू और अन्य) का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी ने कहा कि भले ही पीड़िता के पास अब सभी आपराधिक कार्यवाही में ‘बेलगाम भागीदारी अधिकार’ हो, लेकिन उसे पक्षकार बनाने का कोई कारण नहीं है, जब तक कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में विशेष रूप से ऐसा प्रावधान न किया गया हो।
जमानत से संबंधित कार्यवाही के बारे में बात करते हुए अदालत ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 439 (1ए) कहती है कि एक पीड़िता को याचिका दायर करने के लिए पक्षकार बनने की जरूरत नहीं है।
जज ने कहा : “जगजीत सिंह (सुप्रा) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में सीआरपीसी की धारा 439 (1ए) का विस्तार किया जाना चाहिए, ताकि पीड़िता के सुनवाई के अधिकार को उन याचिकाओं में भी शामिल किया जा सके, जहां एक अभियुक्त अग्रिम जमानत चाहता है। एक दोषी सजा, पैरोल, फरलो या इस तरह की अन्य अंतरिम राहत के निलंबन की मांग करता है।”
न्यायमूर्ति भंबानी एक आरोपी की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पोस्को) अधिनियम की धारा 4 के तहत प्राथमिकी दर्ज होने के बाद से हिरासत में है।
अदालत ने अपनी रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि यौन अपराधों से संबंधित सभी फाइलिंग की सावधानी से जांच करें और यह सुनिश्चित करें कि पीड़िता या पीड़िता की गुमनामी और गोपनीयता को सख्ती से बनाए रखा जाए।
नाम, माता-पिता, पता, सोशल मीडिया क्रेडेंशियल्स और पीड़िता या पीड़िता की तस्वीरें कुछ ऐसे विवरण हैं, जिन्हें फाइलिंग में प्रकट नहीं किया जाना चाहिए, जिसमें पार्टियों के मेमो भी शामिल हैं।
अदालत ने कहा : “हालांकि, यदि पूर्वगामी दिशा का ईमानदारी से पालन किया जाता है, तो पहचान करने वाले विवरण वाद-सूची में प्रकट नहीं होंगे, अत्यधिक सावधानी के माध्यम से रजिस्ट्री को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे विवरण वाद-सूची में किसी भी तरह से परिलक्षित न हों।”
अदालत ने निर्देश दिया कि मुकदमे के पक्षकारों की पहचान प्रमाणपत्रों के उचित सत्यापन के बाद उच्च न्यायालय में दायर यौन अपराधों से संबंधित मामलों की फाइलें या पेपर-बुक किसी भी व्यक्ति को प्रदान नहीं की जानी चाहिए।
अदालत ने कहा, “उच्च न्यायालय के भीतर भी किसी अन्य व्यक्ति या एजेंसी को पहचान के विवरण के प्रसार को रोकने के लिए यह भी निर्देश दिया जाता है कि अभियोजिका/पीड़िता/उत्तरजीवी पर प्रभावी होने वाली सभी सेवाएं केवल जांच अधिकारी के माध्यम से 24.09.2019 दिनांकित अभ्यास निर्देशों के अनुसार होंगी और याचिका या आवेदन की एक प्रति अभियोजिका/पीड़िता/उत्तरजीवी को दी जानी चाहिए।”
जांच अधिकारियों को अदालत ने निर्देश दिया था कि ऐसे मामलों से निपटने के दौरान वे अभियोजिका या पीड़िता पर किसी भी अवांछित ध्यान से बचने के लिए केवल सादे कपड़े पहनें।
अदालत ने रजिस्ट्रार जनरल को यह भी निर्देश दिया कि वह इस फैसले को मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लाएं, ताकि उचित अभ्यास दिशा-निर्देश या नोटिस या अधिसूचना तैयार की जा सके।
–आईएएनएस
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