नई दिल्ली:
धरोहरों के लिहाज से देवगढ़ किला
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा से करीब 45 किलोमीटर दूर पहाड़ियों पर देवगढ़ नाम का ऐतिहासिक किला है। इस किले में नष्ट होने की कगार पर पहुंचीं 16वीं शताब्दी की कई बावलियों को छिंदवाड़ा जिला पंचायत के मुख्य कार्यकारी अधिकारी(सीईओ) गजेंद्र सिंह नागेश ने खोज निकाला है।
गजेंद्र सिंह के निर्देशन में अब इन बावलियों का पुननिर्माण चल रहा है। बावलियों की सूरत संवार कर उन्हें पुराने दौर की तरह चमाकने की तैयारी है। इससे जहां इलाके में पानी की समस्या दूर होगी, वहीं धरोहरों के लिहाज से देवगढ़ किलाऔर समृद्ध होगा। यहां पर्यटकों की संख्या भी बढ़ेगी। इलाके की जहां किस्मत चमकेगी वहीं छिंदवाड़ा प्राचीन धरोहरों के संरक्षण के लिहाज से देश में नजीर बनकर उभरेगा।
हमेशा कुछ लीक से हटकर काम करने के लिए चर्चित
जबलपुर स्मार्ट सिटी के सीईओ रह चुके गजेंद्र सिंह नागेश को सात महीने पहले छिंदवाड़ा के जिला पंचायत सीईओ का पदभार मिला था। हमेशा कुछ लीक से हटकर काम करने के लिए चर्चित 2001 बैच के राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी गजेंद्र सिंह ज्ञानेश की कुछ महीने इलाके के एक आदिवासी व्यक्ति से भेंट हुई थी। इस व्यक्ति ने देवगढ़ किले के आसपास आठ सौ प्राचीन कुएं और नौ सौ बावलियों के बारे में जानकारी दी। उसने बताया कि इस ऐतिहासिक महत्व के इलाके में प्राचीन काल की धरोहरस्वरूप बावलियां लुप्त हो रहीं हैं।
इसके बाद सीईओ नागेश ने इन ऐतिहासिक बावलियों के संरक्षण की तैयारी शुरू की। उनकी कोशिशों से देवगढ़ किले और आसपास के गांवों में अब तक कुल 46 बावलियों की एक श्रृंखला खोजी जा चुकी है। जिसमें से 21 बावलियों में मनरेगा से काम चल रहा है। बावलियों का ‘नैन-नक्श’ दुरुस्त कर उन्हें पुराने लुक में लाने की तैयारी है। देवगढ़ किला वैसे भी टूरिस्ट प्लेस है, ऐसे में अब यहां आने वाले लोगों के लिए ये बावलियां आकर्षण का केंद्र होंगी।
देवगढ़ का किला गोंडवंश के राजाओं की राजधानी रहा है
दरअसल, बावली उन सीढ़ीदार और कुएंनुमा तालाब को कहते हैं, जहां जल तक पहुंचने के लिए सीढ़ियों से गुजरना पड़ता है। देश में बावलियों का बहुत पुराना इतिहास रहा है। अतीत में छिंदवाड़ा में आदिवासी साम्राज्य रहा है। यहां राजा जाटव शाह का राज हुआ करता था। इतिहासकारों के मुताबिक, उन्होंने ही देवगढ़ किला बसाया था। देवगढ़ का किला गोंडवंश के राजाओं की राजधानी रहा है। बावलियों के पुननिर्माण के प्रोजेक्ट से जुड़े कंजर्वेशन आर्किटेक्ट राहुल भोला कहते हैं कि बावलियों के पुनर्निमाण से क्षेत्र में पानी की समस्या दूर होने के साथ ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण भी हो सकेगा।
अंग्रेजों के जमाने में 1906 में तैयार हुए
बावलियों की खोज का काम कितना कठिन था, इसका अंदाजा सीईओ गजेंद्र सिंह नागेश की बातों से पता चलता है। उन्होंने आईएएनएस को बताया, “जब मुझे पता चला कि इलाके में कई प्राचीन बावलियां हैं तो मैंने उनके बारे में जानकारी लेने के लिए जिले के गजेटियर का निरीक्षण किया। अंग्रेजों के जमाने में 1906 में तैयार हुए जिले के गजेटियर में भी इन ऐतिहासिक बावलियों का कोई जिक्र नहीं था। जिससे इनकी लोकेशन आदि के बारे में जानकारी नहीं मिल रही थी। चूंकि जानकारी बहुत रोचक थी, तो बावलियों की खोज में टीम के साथ जुट गया। देवगढ़ किले और आसपास अब तक कुल 46 बावलियां मिलीं, जिनका देखरेख के अभाव में अस्तित्व नष्ट होने वाला था अप्रैल से बावलियों के जीर्णोद्धार के लिए मनरेगा के तहत काम हुआ।”
पर्यटकों की संख्या में भी वृद्धि होगी
गजेंद्र सिंह नागेश ने कहा, “इन बावलियों का काम पूरा होने के बाद इलाके में पानी की समस्या सुलझेगी। तब जलस्तर भी बरकरार रहेगा। स्थानीय ही नहीं, बाहर से आने वाले लोगों के लिए भी ये बावलियां आकर्षण का केंद्र बनेंगी। धरोहरों को संजोने की कोशिश से जहां सुखद अहसास हो रहा है, वहीं इससे जिला पंचायत का सोशल कनेक्ट भी हो रहा है। हमारी कोशिश है कि इन बावलियों की मरम्मत के दौरान उनकी डिजाइन से किसी तरह की छेड़छाड़ न हो। बावलियों को पुराने रूप में लाने की कोशिश है। इससे पर्यटकों की संख्या में भी वृद्धि होगी।”
मजदूरों को मनरेगा के तहत आसानी से काम मिल रहा है
जिला पंचायत के सीईओ गजेंद्र सिंह नागेश के मुताबिक करीब एक करोड़ रुपये की लागत से बावलियों की सूरत संवारने का काम चल रहा है। इससे मजदूरों को मनरेगा के तहत आसानी से काम मिल रहा है। जरूरत पड़ने पर अन्य योजनाओं के जरिए भी इन बावलियों का सुंदरीकरण होगा। जब इस काम को जिला पंचायत ने हाथ में ले ही लिया है तो फिर इसे परफेक्शन(पूर्णता) के साथ करेंगे। क्योंकि मामला धरोहरों और संस्कृति के संरक्षण का है।
–आईएएनएस
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